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Ekasaptatimaṃ parva Rājñaḥ kāśyapagotrasyaharivamśaśikhāmaṇeḥ | Samudravijayākhyasya śivadeví manoramā ||30|| Devatopāsyamānānirvasudharābhinandità | Ṣaṇmāsāvasitau māse kārtike śuklapakṣage ||31|| Ṣaṣṭhyāmathottarāṣāḍhe niśānte svamamālikām | Ālokitānuvaktrābjaṃ praviṣṭaśca gajādhipam ||32|| Tato vandivacoyāmabherīdhvanivibodhità | Kṛtamaṅgalasunānā dhṛtapuṇyaprasādhana ||33|| Upacāravadabhyetya nṛpamarddhāsane sthità | Svadṛṣṭasvapnasāphaly'manvayuktaśrutāgamam ||34|| Saṃkalayya narendro'pi phalaṃ teṣāmabhāṣata | Tvagarbhe viśvalokéśo'vatīrṇa iti sūkṣmadhīḥ ||35|| Śrutvā tadaiva taṃ ulabdhavativātūṣadapyasau | Jñātvā svacihnadevéndrāḥ sambhūyāgatya saṃmadāt ||36|| Svargāvatārakalyāṇamahōtsavavidhāyinaḥ | Svéṣāṃ puṇyañca nirvartya svaddhāma samupāgaman ||37|| Sa punaḥ śrāvaṇe śuklapakṣe ṣaṣṭhīdine jinaḥ | Jñānatritayabhṛtvaṣṭyoge tuṣṭhyāmajāyata ||38|| Atha svaviṣṭarākampsamutpannāvadhīkṣaṇāḥ | Buddhvā bhagavadutpattiṃ saudharmendrapuraskṣarāḥ ||39|| Sātasammdadāḥ prāpya parivéṣṭya puraṃ sthitāḥ | Airāvatagazaskandhamāropya bhuvanaprabhuṃ ||40|| Saudharmādhipatirabhaktathā nīlāmbhojadaladyutiṃ | Īśamīśānakalpéśaratātapanivāraṇam ||41|| Namañcamaravairocanoddhatacamarīruham | Dhanéśanimitadhāmaṇisopānamārgagaḥ ||42|| Nītvā payodamārgéṇa girīśéśānadigigate | Pāṇḍukākhyaśilāprasthammaṇisiṃhāsane ||43|| Anādiniddhane bālamāropyātyarkatejasam | Kṣīrāmbhodhipayaḥ pūrṇasuvarṇakalasocitaiḥ ||44||
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________________ एकसप्ततितमं पर्व राज्ञः काश्यपगोत्रस्य हरिवंशशिखामणेः । समुद्रविजयाख्यस्य शिवदेवी मनोरमा ॥३०॥ देवतोपास्यमानानिर्वसुधाराभिनन्दिता । षण्मासावसितौ मासे कातिके शुक्लपक्षगे ॥ ३१ ॥ षष्ठ्यामथोत्तराषाढे निशान्ते स्वममालिकाम् । आलोकतानुवक्त्राब्जं प्रविष्टश्च गजाधिपम् ॥ ३२ ॥ ततो वन्दिवचोयामभेरीध्वनिविबोधिता। कृतमङ्गलसुनाना धृतपुण्यप्रसाधना ॥ ३३ ॥ उपचारवदभ्येत्य नृपमर्धासने स्थिता । स्वदृष्टस्वप्नसाफल्य'मन्वयुक्त २श्रुतागमम् ॥ ३४ ॥ सङ्कलय्य नरेन्द्रोऽपि फलं तेषामभाषत । त्वगर्भे विश्वलोकेशोऽवतीर्ण इति सूक्ष्मधीः ॥ ३५॥ श्रुत्वा तदैव तं उलब्धवतीवातुषदप्यसौ । ज्ञात्वा स्वचिह्नदेवेन्द्राः सम्भूयागत्य संमदात् ॥ ३६॥ स्वर्गावतारकल्याणमहोत्सवविधायिनः। ४स्वेषां पुण्यञ्च निर्वर्त्य स्वधाम समुपागमन् ॥ ३७ ॥ स पुनः श्रावणे शुक्लपक्षे षष्ठीदिने जिनः । ज्ञानत्रितयभृत्वष्ट्योगे तुष्ख्यामजायत ॥ ३८ ॥ अथ स्वविष्टराकम्पसमुत्पन्नावधीक्षणाः । बुद्ध्वा भगवदुत्पत्तिं सौधर्मेन्द्रपुरस्सराः ॥ ३९ ॥ सातसम्मदाः प्राप्य परिवेष्ट्य पुरं स्थिताः । ऐरावतगजस्कन्धमारोप्य भुवनप्रभुम् ॥ ४०॥ सौधर्माधिपतिर्भक्तथा नीलाम्भोजदलद्युतिम् । ईशमीशानकल्पेशरतातपनिवारणम् ॥४१॥ नमञ्चमरवैरोचनोद्धतचमरीरुहम् । धनेशनिमितधामणिसोपानमार्गगः ॥१२॥ नीत्वा पयोदमार्गेण गिरीशेशानदिग्गते । पाण्डुकाख्यशिलाप्रस्थमणिसिंहस्तासने ॥ ४३ ॥ अनादिनिधने बालमारोप्यात्यर्कतेजसम् । क्षीराम्भोधिपयः पूर्णसुवर्णकलशोचमैः ॥ ४ ॥ जब छह माह बाद जयन्त विमानसे चलकर इस पृथिवीपर आनेके लिए उद्यत हुआ तब काश्यपगोत्री, हरिवंशके शिखामणि राजा समुद्रविजयकी रानी शिवदेवी रत्नोंकी धारा दिसे पूजित हुई और देवियाँ उसके चरणोंकी सेवा करने लगीं। छह माह समाप्त होने पर रानीने कार्तिक शुक्ल षष्ठीके दिन उत्तराषाढ नक्षत्रमें रात्रिके पिछले समय सोलह स्वप्न देखे ओर उनके बाद ही मुख-कमलमें प्रवेश करता हुआ एक उत्तम हाथी भी देखा ।। २६-३२।। तदनन्तर-बन्दीजनोंके शब्द और प्रातःकालके समय बजनेवाली भेरियोंकी ध्वनि सुनकर जागी हुई रानी शिवदेवीने मङ्गलमय स्नान किया, पुण्य रूप वस्त्राभरण धारण किये और फिर बड़ी नम्रताले राजाके पास जाकर वह उनके अर्धासन पर बैठ गई। पश्चात् उसने अपने देखे हुए स्वप्नोंका फल पूछा। सूक्ष्म बुद्धिवाले राजा समुद्रविजयने भी सुने हुए आगमका विचार कर उन स्वप्नोंका फल कहा कि तुम्हारे गर्भमें तीन लोकके स्वामी तीर्थंकर अवतीर्ण हुए हैं ॥३३३५ ॥ उस समय रानी शिवदेवी स्वप्नोंका फल सुनकर एसी सन्तुष्ट हुई मानो उसने तीर्थंकरको प्राप्त ही कर लिया हो। उसी समय इन्द्रोंने भी अपने-अपने चिह्नोंसे जान लिया। वे सब बड़े हर्षसे मिलकर आये और स्वर्गावतरण कल्याण (गर्भकल्याणक) का महोत्सव करने लगे। उत्सव द्वारा पुण्योपार्जन कर वे अपने-अपने स्थान पर चले गये ॥३६-३७॥ फिर श्रावण शुक्ला षष्ठीके दिन चित्रा नक्षत्रमें ब्रह्मयोगके समय तीन ज्ञानके धारक भगवानका जन्म हुआ॥३८॥ तदनन्तर अपने आसन कम्पित होनेसे जिन्हें अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे सौधर्म आदि इन्द्र हर्षित होकर आये और नगरीको घेर कर खड़े गये। तदनन्तर जो नील कमलके समान कान्तिके धारक हैं, ईशानेन्द्रने जिनपर छत्र लगाया है, तथा नमस्कार करते हुए चमर और वैरोचन नामके इन्द्र जिनपर चमर ढोर रहे हैं ऐसे जिनेन्द्र बालकको सौधर्मेन्द्रने बड़ी भक्तिसे उठाया और कुबेर-निर्मित तीन प्रकारकी मणिमय सीढ़ियोंके मार्गसे चलकर उन्हें ऐरावत हाथीके स्कन्ध पर विराजमान किया। अब इन्द्र आकाश-मार्गसे चलकर सुमेरु पर पहुँचा वहाँ उसने सुमेरु पर्वतकी ईशान दिशामें पाण्डुक शिलाके अग्रभाग पर जो अनादि-निधन मणिमय सिंहासन रक्खा है उसपर सूर्यसे भी अधिक तेजस्वी जिन-बालकको विराजमान कर दिया। वहीं उसने अनुक्रमसे हाथों हाथ लाकर इन्द्रोंके द्वारा १ नामाली-ल०, म०, ग०, घ०। शुभागमं ल। ३ संलब्धवती ल०। ४ तेषां ख०। ५-मार्गतः ख० । ६ दिनते ग०, घ० । दिनतं०, ख० । दिग्तटे ल० । " पयःपूर्णः म० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002728
Book TitleUttara Purana
Original Sutra AuthorGunbhadrasuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages738
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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