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The Seventy-Seventh Chapter 355 The gatekeeper, having been forbidden to let you out, stood there. Fearing disgrace, he did not tell you of the victory of Samudravijaya and the others. || 240 || "Vasudeva, having gone away under the pretense of acquiring knowledge, has fallen into the great fire in the cremation ground and perished." || 241 || Having written this letter, he tied it around the neck of the horse and released it. || 242 || He circumambulated the burning pyre and then quickly left by an unseen path that very night. || 243 || Then, at sunrise, the chief of the guards, not seeing the prince in the royal palace, informed the king. Following the king's orders, they searched for him with many others. || 244 || They found the cremated body and the horse wandering nearby. || 245 || Taking the letter from the horse's neck, they presented it to the king. Hearing the contents of the letter, Samudravijaya and the other kings were deeply grieved. But the astrologer, knowing the auspiciousness and well-being of Vasudeva, calmed them down. || 246-247 || Out of affection, the king immediately sent many skilled and enthusiastic servants to search for him. || 248 || Having gone to the city of Vijayapura, Vasudeva, the great tree of sorrow, rested under the shade of an Ashoka tree. || 249 || Seeing this, the gardener realized that the astrologer's words were true. He informed the king of Magadha, who then offered his daughter, Shyamala, to Vasudeva. || 250 || After resting there for a few days, Vasudeva left. He reached the Pushparamya lake of lotuses in the Deodar forest and played with a wild elephant. || 252 ||
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________________ सप्ततितमं पर्व ३५५ बहिस्त्वया न गन्तव्यमिति रुद्धः स्थितोऽन्यदा । समुद्रविजयादीनामनुक्त्वाऽयशसो भयात् ॥ २४० ॥ 'वसुदेवोऽमुतो गत्वा विद्यासंसाधनच्छलात् । श्मशानभूमावेकाकी महाज्वाले हुताशने ॥ २४॥ निपत्याकीर्तिभीर्मातुरिति पत्रं विलिख्य तत् । कण्ठे निबध्य वाहस्य मुक्त्वा तव तं स्वयम्॥ २४२॥ वहिं प्रदक्षिणीकृत्य दह्यमानशवान्वितम् । अगादलक्षमार्गः स रात्रावेव द्रुतं ततः ॥ २४३ ॥ ततः सूर्योदये राजगेहे तद्रक्षकाग्रणीः । अनिरीक्ष्यानुजं राज्ञो राजादेशादितस्ततः ॥ २४४ ॥ पर्यटन्बहुभिः सार्धं तमन्वेष्टुमथैक्षत । भस्मीभूतं शवं तत्र भ्राम्यन्तं चतुरङ्गमम् ॥ २४५॥ "तत्कण्ठे पत्रमादाय नीत्वा राज्ञे समार्पयत् । तत्पत्रार्थ समाकर्ण्य समुद्र विजयादयः ॥ २४६ ॥ महीभुजः परे चातिशोकसन्तप्तचेतसः। नैमित्तिकोक्ततद्योगक्षेमज्ञाः शममागताः ॥ २४७ ॥ भृत्यान्महीपतिः स्नेहात्स तदैव समन्ततः। तं गवेषयितुं दक्षान् प्राहिणोत्सहितान् बहन् ॥ २४८ ॥ विजयाख्यं पुरं गत्वा सोऽप्यशोकमहीरुहः । मूले विश्रान्तये तस्थौ तरुच्छायामवस्थिताम् ॥ २४९ ॥ समीक्ष्यादैशिकप्रोक्तमभूदवितथं वचः । इत्युद्यानपतिर्गत्वा मगधेशमबूबुधत् ॥ २५ ॥ राजापियामलाख्यां स्वां सुतां तस्मै समार्पयत् । दिनानि कानिचित्तत्र विश्रम्य गतांस्ततः ॥२५॥ देवदारुवने पुष्परम्याख्ये वनजाकरे । अरण्यवारणेनासौ क्रिडित्वारुह्य तं मुदा ॥ २५२ ॥ करनेके लिए कुमार वसुदेव ज्यों ही राजमन्दिरसे बाहर जाने लगे त्यों ही द्वारपालोंने यह कहते हुए "मना कर दिया कि 'देव ! हम लोगोंको आपके बड़े भाईकी ऐसी ही आज्ञा है कि कुमारको बाहर नहीं जाने दिया जावे ।। द्वारपालोंकी उक्त बात सुनकर कुमार वसुदेव उस समय तो रुक गये परन्तु दूसरे ही दिन समुद्रविजय आदिसे कुछ कहे बिना ही अपयशके भयसे विद्या सिद्ध करनेके बहाने अकेले ही श्मशानमें गये और वहाँ जाकर माताके नाम एक पत्र लिखा कि 'वसुदेव अकीर्तिके ज्वालाओं वाली अग्निमें गिरकर मर गया है। यह पत्र लिखकर घोड़ेके गलेमें बाँध दिया, उसे वहीं छोड़ दिया और स्वयं जिसमें मुर्दा जल रहा था ऐसी अग्निकी प्रदक्षिणा देकर रात्रिमें ही बड़ी शीघ्रतासे किसी अलक्षित मार्गसे चले गये ॥ २२६-२४३ ॥ तदनन्तर सूर्योदय होनेपर जब उनके प्रधान प्रधान रक्षकोंने राजमन्दिरमें कुमार वसुदेवको नहीं देखा तो उन्होंने राजा समुद्रविजयको खबर दी और उनकी आज्ञानुसार अनेक लोगोंके साथ उन्हें खोजनेके लिए वे रक्षक लोग इधर-उधर घूमने लगे। कुछ समय बाद उन्होंने श्मशानमें जला हुआ मुर्दा और उसीके आस पास घूमता हुआ कुमार वसुदेवका घोड़ा देखा ॥२४४-२४५ ॥ घोड़ाके गले में जो पत्र बँधा था उसे लेकर उन्होंने राजा समुद्रविजयके लिए सौंप दिया। पत्रमें लिखा हुआ समाचार सुनकर समुद्रविजय आदि भाई तथा अन्य राजा लोग सभी शोकसे अत्यन्त दुःखी हुए परन्तु निमित्तज्ञानीने जब कुमार वसुदेवके योग्य और क्षेमका वर्णन किया तो उसे जानकर सब शान्त हो गये ॥२४६-२४७ ।। राजा समुद्रविजयने उसी समय स्नेह वश, बहुतसे हितैषी तथा चतुर सेवकोंको कुमार वसुदेवकी खोज करनेके लिए भेजा।। २४८॥ इधर कुमार वसुदेव विजयपुर नामक गाँवमें पहुँचे और विश्राम करनेके लिए अशोक वृक्षके नीचे बैठ गये । कुमारके बैठनेसे उस वृक्षकी छाया स्थिर हो गई थी उसे देख कर वागवान्ने सोचा कि उस निमित्तज्ञानीके वचन सत्य निकले। ऐसा विचार कर उसने .मगधदेशके राजाको इसकी खबर दी और राजाने भी अपनी श्यामला नामकी कन्या कुमार वसुदेवके लिए समर्पित की। कुमारने कुछ दिन तक तो वहाँ विश्राम किया, तदनन्तर वहाँ से आगे चल दिया। अब वे देवदारु वनमें पुष्परम्य नामक कमलोंके सरोवरके पास पहुंचे और वहाँ किसी जंगली हाथीके साथ १ वसुदेषस्ततो ग०, ल० । २ व्यलिख्यत ल० । ३ ख०, ग०, १०, म० संमतः पाठः, ल० पुस्तके तु'ततः सूर्योदये गेहे तद्रक्षणकराग्रणीः' इति पाठः। ४-कण्ठपत्र-ल०। ५ नैमित्तिकोक्ततद्योगकालज्ञाः म. कायज्ञाः ल.। ६ तमावेषयितुं ल०। ७ तो ग०, ल०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002728
Book TitleUttara Purana
Original Sutra AuthorGunbhadrasuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages738
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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