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## Chapter Eighty-Six ### 306 The messenger of Vali, observing Raghunandan, bowed down and offered gifts, speaking to him without deception. "My master, the powerful Vali, requests you, O King, to make me your messenger. Do not accept Sugriva and Angada as messengers, for they are capable of little work. If you wish to see my prowess, remain here. I alone will go to Lanka, disgrace Ravana, and bring back Janaki today." Hearing these words, Rama, the elder brother of Lakshmana, who knew the art of diplomacy, asked his ministers, "What should be the reply to the King of Kishkindha?" Angada, the most beloved and praised by all the ministers, said, "Kings are of three types: enemies, friends, and neutrals. Ravana is our enemy, and Vali is the enemy of our friend. If we do not act according to his words, he will make an alliance with the enemy, joining forces with him. This will strengthen the enemy, making his destruction difficult. If we heed Vali's words, this task will be difficult for you. Therefore, it is necessary to destroy the King of Kishkindha first. After that, with increased power and wealth, the destruction of Ravana will be easy." Accepting Angada's words, Rama called the messenger and said, "Give me the great elephant named Mahamegha, and accompany me to Lanka. Later, we will discuss your desired work." Saying this, he dismissed Vali's messenger and sent his own messenger as well. Going to Vali, the elder brother of Sugriva, they delivered Rama's message, greatly angering him. Filled with pride, Vali said, "Rama, who attacks me in this way, has spread his fame in all directions by destroying Ravana, the abductor of women, and bringing back Sita. What glory is there in this?"
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________________ अष्टषष्टं पर्व ३०६ तत्रत्यं वालिनो दूत: समीक्ष्य रघुनन्दनम् । प्रणम्योपायनं दत्वेत्यब्रवीदविमोहितम् ॥ ४४० ॥ विज्ञापयति मत्स्वामी बालीति बलवानलम् । पूज्यपादो यदि प्रेष्यं मामिच्छति महीपतिः॥ ४४१ ।। 'न प्रतीच्छतु भूत्यत्वं सुग्रीवानिलपुत्रयोः । यावत् किञ्चित्करावार्यो वेति वैतत्पराक्रमम् ॥ ४४२ ॥ तिष्ठत्वत्रैव देवोऽहं गत्वा लङ्कां दशाननम् । मानभने नियोज्यामिानयेऽद्यैव जानकीम् ॥ ४४३ ॥ इत्याकणिंततद्वाक्यः २प्रपाक्षीलक्ष्मणाग्रजः । सामभेदविदो वाच्यं किष्किन्धेशः किमुत्तरम् ॥ ४४४ ॥ इति मन्त्रिगणं सर्वसम्मतः संस्तुतोङ्गदः । शत्रुमिंत्रमुदासीन इति भूपालयो मताः ॥ ४४५ ॥ रावणस्तेषु नः शत्रुर्बाली मित्रस्य विद्विषः । न कुर्मो यदि तत्कार्य सम्बध्नीयात्स शत्रुणा ॥ ४४६ ॥ तथा चोपचयः शत्रोर्दुरुच्छेदो हि तेन सः। अथ बालिवचः कुर्मः कर्म तत्त्वार्य दुष्करम् ॥ ४४७ ॥ ततो हठासवायातं किष्किन्धेशविनाशनम् । प्राक् पश्चाच्छक्तिसम्पत्त्या सुखोच्छेद्यो दशाननः ॥ ४४८ ॥ इत्यब्रवीदादाय दूतमाहूय भूपतिः । महामेघाभिधानं मे प्रदायानेकपानिमम् ॥ ४४९ ॥ सहाभ्येतु मया लङ्का चयं पश्चातदीप्सितम् । इत्युक्त्वामामुनात्मीयमपि दूतं व्यसर्जयत् ॥ ४५० ॥ गत्वा तौ रामसन्देशात्सुग्रीवस्याग्रजन्मनः । कोपमानयतः स्मासावित्यवोचन्मदोद्वतः ॥ ४५१ ॥ एवं प्रार्थयमानो मां रामो रामापहारिणम् । निर्मूल्यानीय सीतां किं यशो दिक्षु विकीर्णवान् ॥४५२॥ बलवान मानकर उन्होंने वर्षाऋतु वहीं बिताई ।। ४३७-४३६ ।। जब रामचन्द्र चित्रकूट वनमें निवास कर रहे थे तब राजा बालिका दूत उनके पास आया और प्रणाम करनेके अनन्तर भेंट समर्पित करता हुआ बड़ी सावधानीसे यह कहने लगा ॥४४०।। किहे देव! मेरे स्वामी राजा बाली बहुत ही बलवान् हैं। वे आपसे इस प्रकार निवेदन कर रहे हैं कि यदि पूज्यपाद महाराज रामचन्द्र मुझे दूत बनाना चाहते हैं तो सुग्रीव और अणुमानको दूत न बनावें क्योंकि वे दोनों बहुत थोड़ा कार्य करते हैं। यदि आप मेरा पराक्रम देखना चाहते हैं तो आप यहीं ठहरिये, मैं अकेला ही लङ्का जाकर और रावणका मानभङ्ग कर आया जानकीको आज ही लिये आता हूँ॥४४१-४४३ ।। इस प्रकार बालिके दूतके वचन सुनकर रामचन्द्र ने साम और भेदको जानने वाले मन्त्रियोंसे पूछा कि किष्किन्धा नगरके राजा बालीको क्या उत्तर दिया जावे ।। ४४४ ॥ इस प्रकार मन्त्रि-समूहसे पूछा। तब सर्वप्रिय एवं सर्व प्रशंसित अङ्गदने कहा कि शत्रु, मित्र और उदासीनके भेदसे राजा तीन प्रकारके होते हैं। इन तीन प्रकारके राजाओंमें रावण हमारा शत्रु है, और बालि मित्रका शत्रु है। यदि हम लोग उसके कहे अनुसार कार्य नहीं करेंगे तो वह शत्रुके साथ सन्धि कर लेगा-उसके साथ मिल जावेगा ॥४४५-४४६ ॥ और ऐसा होनेसे शत्रुकी शक्ति बढ़ जायगी जिससे उसका उच्छेद करना दुःखसाध्य हो जायगा । यदि बालिकी बात मानते हैं तो यह कार्य आपके लिए कठिन है॥४४७ ।। इसलिए सबसे पहले किष्किन्धा नगरीके स्वामीके नाश करनेका काम जबर्दस्ती आपके लिए या पड़ा है इसके बाद शक्ति और सम्पत्ति बढ़ जानेसे रावणका नाश सुखपूर्वक किया जा सकेगा ॥४४८ ।। इस प्रकार अंगदके वचन स्वीकृत कर रामचद्रने बालिके दूतको बुलाया और कहा कि आपके यहाँ जो महामेघ नामका श्रेष्ठ हाथी है वह मेरे लिए समर्पित करो तथा मेरे साथ लङ्काके लिए चलो, पीछे आपके इष्ट कार्यकी चर्चा की जायगी। ऐसा कह कर उन्होंने बालिके दृतको विदा किया और उसके साथ ही अपना दूत भी भेज दिया॥४४६-४५०॥ वे दोनों ही दत जाकर सुग्रीवके बड़े भाई बालिके पास पहुंचे और उन्होंने रामचन्द्रका संदेश सुनाकर उसे बहुत ही कुपित कर दिया। तब मदसे उद्धत हुआ बालि कहने लगा कि इस तरह मुझपर आक्रमण करनेवाले रामचन्द्र क्या स्त्रीको अपहरण करनेवाले रावणको नष्ट कर तथा सीताको वापिस लाकर दिशाओं में अपना यश १ मा ल०, म० । २ सोऽप्राक्षीत् ल०।३ कुर्मों यदि ल.। ४ अभियाति, 'याञ्चायामभिधाने च प्रार्थना कथ्यते बुधैः ॥ इति केशवः । यद्वा अवरुणद्धि, इत्यर्थः। प्रा अर्थयते। 'प्रा स्याद्याञ्चावरोधयोः' इत्यभिधानात् । प्रा अवरोधेन, प्रा इति तृतीयान्तम्, आकारान्तस्य प्राशब्दस्य योगविभागात 'पातोधातोः' इत्यालोपः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002728
Book TitleUttara Purana
Original Sutra AuthorGunbhadrasuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages738
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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