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Trishatititama Parva 166 The trees of the Chocha clan were as tall and generous as the best kings, with roots as firm as those of a king, and as beautiful as the most handsome of men. They were adorned with fine leaves, just as a king is adorned with fine horses. || 344 || The banana trees were as pleasing as women, for they were as beautiful to look at, as delicate, as shady, as juicy, and as beautiful as women. || 345 || The mango trees were laden with fruit, their new shoots and flowers bright, filled with the songs of cuckoos and buzzing with swarms of bees. || 346 || The jackfruit trees were abundant, with large, ripe fruits, their fragrance attracting swarms of bees, and bearing fruit from their very roots. || 347 || All the bushes, vines, and trees were bent under the weight of their flowers, as if they were the pleasure gardens of the king of love, Kamadeva. || 348 || The land was free of pits, holes, stones, and unevenness. It was free of the eight fears, and always bore fruit. || 349 || Just as those who follow the path of virtue without fail never need to perform penance, so too the people of this land, by upholding their own dharma, never feared punishment. || 350 || The lakes were always filled with fish and clean water, adorned with various flowers, and rivaled the beauty of the heavens. || 351 || The trees were like kings in their conduct, for they had eyes like lotus flowers, were tall and generous, had branches like long arms, and always bore beautiful fruit. || 352 || The various vines were as beautiful as women, for they had red lips, were adorned with flowers, and had delicate bodies and swarms of bees. || 353 ||
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________________ त्रिषष्टितम पर्व १६६ सदरष्टया सौकुमार्येण छायया रसवसया । कदल्यः सर्वसौन्दर्याः सम्प्रीत्यै रमणीसमाः॥ ३४५॥ आम्राः कनाः फलैर्नम्राः पल्लवप्रसवोज्ज्वलाः । कोकिलालापवाचाला लोलालिकुलसकुलाः ॥३४६ " स्थूलपक्कफलाः प्रोद्यद् गन्धान्धीकृतषट्पदाः । पनसाः प्रचुरा रेजुरामूलात्फलदायिनः ॥ ३४७ ॥ गुल्मवल्लीद्रमाः सर्वे प्रसूनभरभङ्गुराः । क्रीडागारनिभाः भान्ति कामनाममहीभुजः ॥ ३४८ ॥ नि मिच्छिद्रमच्छिद्रं निःपाषाणं निरूसरम् । निर्नष्टाष्टभयं भूरिभूतलं सफलं सदा ॥ ३४९ ॥ अप्रमादोरुचारित्राः प्रायश्चित्तमिव द्विजाः। न दण्डभयमृच्छन्ति प्रजाः स्वस्थितिपालनात् ॥ ३५० ॥ महाजलाशया नित्यमच्छाः स्वच्छाम्बुसम्भूताः । नानाप्रसवसंछना जज्योतिर्जगच्छ्रियम् ॥ ३५१ ॥ पुष्पनेत्राः समुत्तुङ्गा विटपायतबाहवः । भूरुहा भूमिपायन्ते सदा चारुफलावहाः ॥ ३५२ ॥ पल्लवोष्ठाः प्रसूनाढ्यास्तन्वडयोऽलिकुलालकाः । सत्पत्राश्चित्रवल्लयों रमण्य इव रेजिरे ॥ ३५३ ॥ फल-बड़े-बड़े फल प्रदान करते हैं, जिस प्रकार उत्तम राजा तुङ्ग-उदारचित्त होता है उसी प्रकार चोच जातिके वृक्ष तुङ्ग-ऊँचे थे, जिस प्रकार राजा बद्धमूल-पक्की जड़ वाले होते हैं उसी प्रकार चोच जातिके वृक्ष भी बद्धमूल--पक्की जड़ वाले थे। जिस प्रकार उत्तम राजा मनोहर-अत्यन्त सुन्दर होते है उसी प्रकार चोच जातिके वृक्ष भी मनोहर-अत्यन्त सुन्दर थे, और उत्तम राजा सत्पत्र--अच्छी अच्छी सवारियोंसे युक्त होते हैं उसी प्रकार चोच जातिके वृक्ष भी सत्सत्र-अच्छे अच्छे पत्तोंसे युक्त थे॥३४४॥ वहाँ के केलेके वृक्ष स्त्रियोंके समान उत्तमप्रीति करनेवाले थे क्योंकि जिस प्रकार केलेके वृक्ष सद्दृष्टि--देखने में अच्छे लगते हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ भी सदुद्दष्टि--अच्छी ऑखो वाली थी, जिस प्रकार केलेके वृक्ष सुकुमार होते है उसी प्रकार खियाँ भी सुकुमार थीं, जिस प्रकार केलेके वृक्ष छाया-अनातपसे युक्त होते हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ भी छाया–कान्तिसे युक्त थीं, जिस प्रकार केलेके वृक्ष रसीले होते हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ भी रसीलीशृङ्गारसे युक्त थीं, और केलेके वृत्त जिस प्रकार सबसे अधिक सुन्दर होते हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ सबसे अधिक सुन्दर थीं ॥ ३४५ ।। वहाँ के सुन्दर आमके वृक्ष फलोंसे झुक रहे थे, नई नई कोंपलों तथा तथा फूलोंते उज्ज्वल थे, कोकिलाओंके वार्तालापसे मुखरित थे, और चश्चल भ्रमरोंके समूहसे व्यग्र थे ।। ३४६ ॥ जिनमें बड़े-बड़े पके फल लगे हुए हैं, जिनकी निकलती हुई गन्धसे भ्रमर अंधे हो रहे थे, और जो मूलसे ही लेकर फल देनेवाले थे ऐसे कटहलके वृक्ष वहाँ अधिक सुशोभित होते थे॥३४७ ॥ फूलोंके भारसे झुकी हुई वहाँकी झाड़ियाँ, लताएँ और वृक्ष सभी ऐसे जान पड़ते थे मानो कामदेव रूपी राजाके क्रीड़ाभवन ही हों ।। ३४८॥ वहाँकी भूमिमें गड्ढे नहीं थे, छिद्र नहीं थे, पत्थर नहीं थे, ऊपर जमीन नहीं थी, आठ भय नहीं थे किन्तु इसके विपरीत वहाँकी भूमि सदा फल देती रहती थी ।। ३४६ ॥ जिस प्रकार प्रमादरहित श्रेष्ठ चारित्रको पालन करनेवाले द्विज कभी प्रायश्चित्त नहीं प्राप्त करते उसी प्रकार वहाँकी प्रजा अपनी-अपनी मर्यादाका पालन करनेसे कभी दण्डका भय नहीं प्राप्त करती थी॥३५०॥ जिनमें निरन्तर मच्छ-जलचर जीव रहते हैं. जो स्वच्छ जलसे भरे हुए हैं, और अनेक प्रकारके फूलोंसे आच्छादित हैं ऐसे वहाँ के सरोवर ज्योतिर्लोककी शोभा हरण करते हैं ।। ३५१॥ वहाँ के वृक्ष ठीक राजाओंके समान आचरण करते थे क्योंकि जिस प्रकार राजा पुष्पनेत्र-कमलपुष्पके समान नेत्रोंवाले होते हैं उसी प्रकार वहाँ के वृक्ष भी पुष्पनेत्रपुष्प रूपी नेत्रोंसे युक्त थे, जिस प्रकार राजा समुत्तङ्ग-उदाराशय होते हैं उसी प्रकार वहाँ के वृक्ष भी समुत्तङ्गबहुत ऊँचे थे, जिस प्रकार राजा विटपायतबाहु होते हैं-शाखाओंके समान लम्बी भजाओंसे यक्त होते हैं उसी प्रकार वहाँ के वृक्ष भी विटपायतबाहवः-शाखाएँ ही जिनकी लम्बी भजाएँ हैं ऐसे थे और जिस प्रकार राजा सदा उत्तमफल प्रदान करते हैं उसी प्रकार वहाँ के वृक्ष भी सदा सुन्दर फलोंको धारण करनेवाले थे।। ३५२॥ वहाँकी अनेक प्रकारकी लताएँ स्त्रियोंके समान सुशोभित हो रही थीं क्योंकि जिस प्रकार स्त्रियोंके लाल लाल श्रोठ होते हैं उसी प्रकार वहाँकी १ सदाचारफलावदाः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002728
Book TitleUttara Purana
Original Sutra AuthorGunbhadrasuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages738
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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