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महापुराणे उत्तरपुराणम्
सुता मम सुकान्तायाश्चैषा शान्तिमतिः सती । विद्याः साधयितुं याता मुनिसागरपर्वतम् ॥१४॥ विद्यासाधनविघ्नार्थ पापोऽयं समुपस्थितः । पुण्योदयात्तदैवास्या विद्या सिद्धिमुपागता ॥१५॥ तनयात्वामयं पापकर्मकृत्समुपाश्रयत् । विद्यापूजां समादाय तदैवाहं समागमम् ॥ १६ ॥ अदृष्टा मत्सुतां तत्र तन्मार्ग क्षिप्रमन्वितः । इत्यवादीत्स तत्सर्व श्रुत्वाऽवधिविलोचनः ॥ ९७ ॥ जानाम्यहं महचास्य विद्याया विघ्नकारणम् । इति वज्रायुधो व्यक्तमेवं प्रोवाच तां कथाम् ॥ १८ ॥ अस्मिन्नैरावते ख्याते गान्धारविषये नृपः । विन्ध्यसेनः पतिविन्ध्यपुरस्य विलसन् गुणैः ॥१९॥ सुलक्षणायां तस्याभूत्सूनुर्नलिनकेतुकः । तत्रैव धनमित्रस्य श्रीदत्तायां सुतो वणिक ।। १०.॥ सुदत्तो नाम तस्यासीद्रार्या प्रीतिङ्कराह्वयात् । दृष्ट्वा नलिनकेतुस्तां क्वचिद्वनविहारिणीम् ॥१०॥ मदनानलसन्तप्ततद्दाह' सोदुमक्षमः । न्यायवृत्तिं समुल्लध्य बलादहृत दुर्मतिः॥१०२॥ . सुदत्तस्तेन निविण्णः सुव्रताख्यजिनान्तिके । प्रव्रज्य सुचिरं घोरं तपः कृत्वाऽऽयुषोऽवधौ ॥१.३॥ संन्यस्येशानकल्पेऽभूदेकसागरजीवितः। तत्र भोगाँश्चिरं भुक्त्वा ततः प्रच्युत्य पुण्यभाक् ॥१०॥ जम्बूद्वीपसुकच्छाख्यविजयार्धाचलोत्तर- श्रेण्यां पुरेऽभवत्काञ्चनाद्यन्ततिलकाहये ॥१०५॥ महेन्द्रविक्रमस्येष्टतनूजोऽजितसेनवाक् । अमवनीलगायां विद्याविक्रमदुर्गतः ॥ १०६॥ इतो नलिनकेतुश्च वीक्ष्योल्कापातमात्मवान् । निविंद्य प्राक्तनात्मीयं दुश्चरित्रं विनिन्दयन् ॥१०॥ सीमङ्करमुनि श्रित्वा दीक्षामादाय शुद्धधीः । क्रमाकैवल्यमुत्पाद्य सम्प्रापरिक्षतिमष्टमीम् ॥१०८॥
मेरी स्त्री है ॥६३ ॥ मेरे तथा सुकान्ताके यह शान्तिमती नामकी सती पुत्री उत्पन्न हुई है। यह विद्या सिद्ध करनेके लिए मुनिसागर नामक पर्वतपर गई थी॥६४॥ उसी समय यह पापी इसकी विद्या सिद्ध करनेमें विघ्न करनेके लिए उपस्थित हुआ था परन्तु पुण्यकर्मके उदयसे इसकी विद्या सिद्ध हो गई ॥६५॥ यह पापी विद्याके भयले ही आपके शरण आया है। मैं विद्याकी पूजाकी सामग्री ले कर उसी समय वहाँ आया था परन्तु वहाँ अपनी पुत्रीको न देख शीघ्र ही उसी मार्गसे इनके पीछे आया हूँ। इस प्रकार उस वृद्ध विद्याधरने कहा। यह सब सुनकर अवधिज्ञानरूपी नेत्रको धारण करने वाले राजा वज्रायुध कहने लगे। कि 'इसकी विद्यामें विघ्न होनेका जो बड़ा भारी कारण है उसे मैं जानता हूं ऐसा कहकर वे स्पष्ट रूपसे उसकी कथा कहने लगे॥६६-६८॥ ___ उन्होंने कहा कि 'इसी जम्बूद्वीपके ऐरावत क्षेत्रमें एक गान्धार नामका देश है उसके बिन्ध्यपुर नगरमें गुणोंसे सुशोभित राजा विन्ध्यसेन राज्य करता था। उसकी सुलक्षणा रानीसे नलिनकेतु नामका पुत्र हुआ था। उसी नगरमें एक धनमित्र नामका वणिक् रहता था। उसकी श्रीदत्ता स्त्रीसे
नामका पुत्र हुआ था। सुदत्तकी स्त्रीका नाम प्रीतिंकरा था। एक दिन प्रीतिंकरा किसी वनमें विहार कर रही थी। उसी समय राजपुत्र नलिनकेतुने उसे देखा और देखते ही कामाग्निसे ऐसा संतप्त हुआ कि उसकी दाह सहन करनेमें असमर्थ हो गया। उस दुर्बुद्धिने न्यायवृत्तिका उल्लङ्घन कर बलपूर्वक प्रीतिंकराका हरण कर लिया ॥६६-१०२ ॥ सुदत्त इस घटनासे बहुत ही विरक्त हुआ। उसने सुव्रत नामक जिनेन्द्रके समीप दीक्षा ले ली और चिर काल तक घोर तपश्चरण कर आयुके अन्तमें संन्यासमरण किया जिससे ऐशान स्वर्गमें एक सागरकी आयुवाला देव हुआ । वह पुण्यात्मा चिर काल तक भोग भोग कर वहाँ से च्युत हुआ और इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी सुकच्छ देशके विजयाध पर्वतकी उत्तर श्रेणीपर काञ्चनतिलक नामक नगरमें राजा महेन्द्रविक्रम और नीलवेगा नामकी रानीके अजितसेन नामका प्यारा पुत्र हुआ। यह विद्या और पराक्रमसे दुर्जेय है।।१०३-१०६।।
इधर नलिनकेतुको उल्कापात देखनेसे आत्मज्ञान हो गया। उसने विरक्त हो कर अपने पिछले दुश्चरित्रकी निन्दा की, सीमंकर मुनिके पास जाकर दीक्षा ली, बुद्धिको निर्मल बनाया, क्रम क्रमसे केवलज्ञान उत्पन्न किया और अन्तमें अष्टम भूमि-मोक्ष स्थान प्राप्त कर लिया ॥१०७-१०८।।
१ विद्यां पूजां क०, १०। २ तं दाहं ल०। । अभदनिलवेगायां म०, ल० ।
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