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126 The Mahapurana, Uttara Purana, is served by all the Tejasvis (radiant ones) and is a great elevation that cannot be surpassed. It is beautiful like Sumeru, adorned with great jewels. ||6|| Balabhadra and Narayana, the embodiments of white and black brilliance, were the initiators of all worldly affairs. They were like the two fortnights, shining together. ||68|| Their bodies were fifty dhanus (a unit of measurement) tall, their lifespan was thirty lakhs years, and they enjoyed equal happiness. They lived for a long time, enjoying equal happiness. ||69|| Then, after many births, the fierce ruler of the past, Chandashasana, became Chand, like the fierce sun, punishing the armies of his enemies. ||70|| In Kashi, the king of the city of Varanasi, Madhusudana, was known for his strength and valor. ||71|| Hearing of their glory, the intolerant Madhusudana sent a message to Narada, saying, "Send me elephants, jewels, and other gifts." ||72|| Hearing this, the ocean of Purushottama's mind was agitated like the wind at the end of a Yuga. He became as terrible as Yama, the god of death, and was filled with anger. ||73|| Balabhadra, the radiant one, spread the brilliance of his eyes in all directions, like a blazing fire of anger. ||74|| He said, "I don't know what a 'kar' is. Is it a hand? What is it used for? I will give him a hand with a shining sword. Let him accept it with his head." ||75|| "Let him come and take it. What harm is there?" Thus, the two brothers, radiating brilliance, replied to Narada in harsh words. ||76|| Hearing this, Madhusudana became enraged and went to kill them. The two brothers, filled with anger, also went to kill him. ||77|| The two armies clashed, as if to destroy everything. The enemy, Madhusudana, hurled his discus at Purushottama, but it could not harm him. Finally, Purushottama used the same discus to kill Madhusudana.
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________________ १२६ महापुराणे उत्तरपुराणम् सेव्यस्तेजस्विभिः सर्वैरविलयमहोन्नतिः। महारत्नसमुभासी सुमेरुरिव सुन्दरः ॥६॥ शुक्लकृष्णत्विषौ लोकव्यवहारप्रवर्तकौ । पक्षाविव विभातः स्म युक्तौ तौ रामकेशवौ ॥ ६८॥ पञ्चाशद्धनुरुच्छ्रायौ त्रिंशल्लक्षसमायुषौ। समं समसुखौ कालं समजीगमतां चिरम् ॥ ६९ ॥ अथ प्रान्त्वा भवे दीर्घ प्राक्तनश्चण्डशासनः । चण्डांशुरिव चण्डोऽभूद्दण्डितारातिमण्डलः ॥ ७० ॥ काशिदेशे नृपो वाराणसीनगरनायकः । मधुसूदनशब्दाख्यो विख्यातबलविक्रमः॥१॥ तौ तदोदयिनौ श्रुत्वा नारदादसहिष्णुकः । तव मे प्रेषय प्रार्थ्यगजरत्नादिकं करम् ॥ ७२ ॥ तदाकर्णनकालान्तवातोद्धृतमनोऽम्बुधिः। युगान्तान्तकदुःप्रेक्ष्यश्चुक्रोध पुरुषोत्तमः ॥ ७३ ॥ सुप्रभोऽपि प्रभाजालं विकिरन् दिक्षु चक्षुषोः । ज्वालावलिमिव क्रोधपावकाचिस्तताशयः ॥ ७ ॥ न ज्ञातः कः करो नाम किं करो येन भुज्यते । तं दास्यामः स्फुरत्खङ्ग शिरसाऽसौ प्रतीच्छतु ॥ ७५॥ एतु गृह्णातु को दोष इत्याविष्कृततेजसौ। उभाववोचतामुच्चैारदं परुषोक्तिभिः ॥ ७६ ॥ ततस्तदवगम्यायात् संक्रुद्धो मधुसूदनः । हन्तुं तौ तौ च हन्तं तं रोषादगमतां प्रति ॥ ७७ ॥ सेनयोरुभयोरासीत्संग्रामः संहरन्निव । सर्वानहँस्तदारिस्तं चक्रेण पुरुषोरामः ॥ ७८ ॥ हुआ जो कि अनेक गुणोंसे मनुष्योंको आनन्दित करने वाला था ।। ६६ ॥ वह पुरुषोत्तम सुमेरुपर्वतके समान सुन्दर था क्योंकि जिस प्रकार सुमेरुपर्वत समस्त तेजस्वियों-सूर्य चन्द्रमा आदि देवोंके द्वारा सेव्यमान है उसी प्रकार पुरुषोत्तम भी समस्त तेजस्वियों-प्रतापी मनुष्योंके द्वारा सेव्यमान था, जिस प्रकार सुमेरु पर्वतकी महोन्नत्ति-भारी ऊँचाईका कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता उसी प्रकार पुरुषोत्तमकी महोन्नति-भारी श्रेष्ठता अथवा उदारताका कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता और जिस प्रकार सुमेरु पर्वत महारत्नों-~बड़े-बड़े रत्नों से सुशोभित है उसी प्रकार पुरुषोत्तम भी महारत्नों-बहुमूल्य रत्नों अथवा श्रेष्ठ पुरुषोंसे सुशोभित था ।। ६७॥ वे बलभद्र और नारायण क्रमशः शुक्त और कृष्ण कान्तिके धारक थे, तथा समस्त लोक-व्यवहारके प्रवर्तक थे अतः शुक्लपक्ष और कृष्णपक्षके समान सुशोभित होते थे ।। ६८॥ उन दोनोंका पचास धनुष ऊँचा शरीर था, तीस लाख वर्षकी दोनोंकी आयु थी और एक समान दोनोंको सुख था अतः साथ ही साथ सुखोपभोग करते हुए उन्होंने बहुत-सा समय बिता दिया ॥६६॥ अथानन्तर-पहले जिस चण्डशासनका वर्णन कर आये हैं वह अनेक भवोंमें घूमकर काशी देशकी वाराणसी नगरीका स्वामी मधुसूदन नामका राजा हुआ। वह सूर्यके समान अत्यन्त तेजस्वी था, उसने समस्त शत्रुओंके समूहको दण्डित कर दिया था तथा उसका बल और पराक्रम बहुत ही प्रसिद्ध था ।। ७०-७१ ॥ नारदसे उस असहिष्णुने उन बलभद्र और नारायणका वैभव सुनकर उसके पास खबर भेजी कि तुम मेरे लिए हाथी तथा रन आदि कर स्वरूप भेजो ॥७२॥ उसकी खबर सुनकर पुरुषोत्तमका मनरूपी समुद्र ऐसा क्षुभित हो गया मानो प्रलय-कालकी वायुसे ही क्षुभित हो उठा हो, वह प्रलय कालके यमराजके समान दुष्प्रेक्ष्य हो गया और अत्यन्त क्रोध करने लगा ।। ७३ ।। बलभद्र सुप्रभ भी दिशाओंमें अपने नेत्रोंकी लाल-लाल कान्तिको इस प्रकार बिखेरने लगा मानो क्रोधरूपी अग्निकी ज्वालाओंके समूहको ही बिखेर रहा हो ॥७४ ॥ वह कहने लगा- मैं नहीं जानता कि कर क्या कहलाता है? क्या हाथ को कर कहते हैं? जिससे कि खाय जाता है । अच्छा तो मैं जिसमें तलवार चमक रही है ऐसा कर-हाथ दूंगा वह सिरसे उसे स्वीकार करे ।।७५ ॥ वह आवे और कर ले जावे इसमें क्या हानि है ?? इस प्रकार तेज प्रकट करनेवाले दोनों भाइयोंने कटुक शब्दोंके द्वारा नारदको उच्च स्वरसे उत्तर दिया ॥७६ ॥ तदनन्तर यह समाचार सुनकर मधुसूदन बहुत ही कुपित हुआ और उन दोनों भाइयोंको मारनेके लिए चला तथा वे दोनों भाई भी क्रोधसे उसे मारनेके लिए चले ॥७७ ॥ दोनों सेनाओंका ऐसा संग्राम हुआ मानो सबका संहार ही करना चाहता हो। शत्रु-मधुसूदनने पुरुषोत्तमके ऊपर चक्र चलाया परन्तु वह चक्र पुरुषोत्तमका कुछ नहीं बिगाड़ सका । अन्तमें पुरुषोत्तमने उसी चक्रसे मधुसूदनको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002728
Book TitleUttara Purana
Original Sutra AuthorGunbhadrasuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages738
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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