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पाण्डवपुराणम्
षण्मासान्स स्थितो योगे योगी विक्षिप्तकल्मषः । उद्भीभूतो महाभूतसेवितः प्रोषधावृतः ॥ २२८ संहृत्य स निजं योगं योगे पूर्णे विनिर्ययौ । अनाश्वान्विश्वसंदृश्यो विश्वलोकनमस्कृतः ॥ २२९ न्यादस्यापि विधिं लोका अजानानाः कथंचन । दृष्ट्वा तं हर्षिणश्चक्रुर्जिनपादनमस्कृतिम्।।२३० विहरन्तं परं ज्येष्ठं द्रङ्गे द्रङ्गे च नीवृति । गृहे गृहे क्रमेणाशुडाबुडाबुडुनाथवत् ॥२३१ जनास्तं वाजिनं वर्यं दन्तिनं दशनोन्नतम् । कन्यामन्नं च वसनं मणि मुक्ताफलं फलम्॥ २३२ भूषणं दूषणातीतमासनं शयनान्वितम् । कुसुमानि सुगन्धीनि ढौकयन्ति स्म तत्पुरः ||२३३ षण्मासान्मौनसंपन्नः कृतेर्यापथवीक्षणः । क्षणेन विहरन्नाप हस्तिनागपुरान्तिकम् ॥२३४ अथ श्रेयान् श्रियोपेतः पुरेशो निशि निश्चलम् । सुप्तः शय्यातले श्रीमान्ददर्श स्वप्नसंचयम् ।।२३५ सुराद्रिं कल्पवृक्षं च हिमांशुं च दिवाकरम् । पारावारं सुगम्भीरं जजागार विलोक्य सः ।। २३६ सोमप्रभाय तत्सर्वं स निवेदयति स्म हि । सोऽवोचन् मेरुतस्तुङ्गः कल्पद्रोः कल्पदायकः॥ २३७
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मासक योग की समाप्ति होनेपर प्रभुने योगको पूर्ण किया । षण्मासोपवासी, सब लोगों द्वारा आदरसे देखे जानेवाले विश्वजन- वन्दनीय प्रभुने दीक्षास्थानसे विहार किया । प्रभु आहारके लिये निकले परंतु लोग आहारकी विधि बिलकुल नहीं जानते थे । प्रभुको देखकर हर्षसे वे उनके चरणोंको नमस्कार करते थे ।। २२९ - २३० ॥ जैसे चंद्र प्रत्येक नक्षत्रपर क्रमसे गमन करता है वैसे प्रत्येक नगर में, प्रत्येक देशमें, तथा प्रत्येक घरमें विहार करनेवाले सर्वोत्कृष्ट आदिभगवानके आगे लोगोंद्वारा घोडा, उन्नत दांतवाले उत्कृष्ट हाथी, कन्या, अन्न, वस्त्र, रत्न, भौक्तिक, फल, निर्दोष अलंकार, आसन, शयन, सुगंधित पुष्पसमूह अर्पण किये जाने लगे । इस प्रकार मौनी भगवान् छह महिनातक ईर्यासमितिपूर्वक विहार करते हुए हस्तिनापुरके समीप आग ॥ २३१-२३४ ॥
[ आदिनाथ प्रभुका श्रेयांस राजाके यहां आहारग्रहण ] उस समय राजलक्ष्मीसे अलंकृत, हस्तिनापुर के स्वामी, श्रीमान् श्रेयांस राजा रात्री में निश्चल सोये थे। उनने ये स्वमसमूह देखे । मेरुपर्वत, कल्पवृक्ष, चन्द्र, सूर्य और गंभीर समुद्र । इनको देखनेपर वे जागृत हुए | उनने प्रातःक अपने बड़े भाई सोमप्रभ को सब स्वप्न कहे । महाराज सोमप्रभने स्वप्नोंका फल इस प्रकार बताया । मेरुके देखनेसे मेरुके समान ऊंचा, कल्पवृक्षको देखनेसे इच्छित वस्तुदाता, चन्द्रको देखनेसे जगतको आनंद देनेवाला, सूर्यको देखनेसे प्रतापी, समुद्र देखनेसे अन्यजन जिसके गुणोंका
पार नहीं देख सके ऐसे कोई महापुरुष अपने महल में आवेंगे ऐसा स्पष्ट व्यक्त होता है । तदनंतर मध्याह्नकालमें प्रभु उनके महलमें पधारे ॥२३५ - २३९ ॥ प्रभुके दर्शन से श्रेयांस राजाको अत्यंत आनंद हुआ । इससे श्रेयांसको पूर्वभवका स्मरण हुआ । सोमप्रभ राजाके साथ श्रेयांस जिनेश्वरके चरणोंको प्रणाम किया । आहारकी विधि जानकर नवधा विधिसे वैशाख शुद्ध तृतीया
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