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पाण्डवपुराणम् भङ्गो यत्र कचेष्वेव चापल्यं बरयोषिताम् । नेत्रे याच्या सतां यत्र पाणिग्रहणयुक्तिषु ॥१९१ मृदङ्गे ताडनं यत्र मदनत्वमनोकुहे । पतनं वृक्षपणेषु लोपः क्किप्प्रत्यये पुनः ॥ १९२ स्पर्धा दानोद्भवा यत्र कामिचेतोऽपहारता। चौर्य स्त्रीषु ततो भीतिः कामिनां कामवासिनाम्॥१९३ पुष्पाणां हरणं यत्र निम्नत्वं नाभिमण्डले । प्रस्तरे विरसत्वं च नान्यत्र कुत्रचिद्भुवि॥१९४ नरा ज्ञानविहीना न नाशीला योषितः क्वचित् । वृक्षाः फलातिगा नैव वर्तन्ते यत्र भासुराः॥१९५ सेवते यत्र भोगीन्द्रो हारिपाकारसंमिषात् । भयादिति जगत्सर्व वशीकृतमनेन वा ॥१९६ त्रिवर्गफलसंभूतां भूतिं भुञ्जन्ति यत्र च । धनाकीर्णा जना धीराः शर्मशाखिफलावहाः।।१९७ शोकं पङ्कसमुद्भूतं नालोकन्ते स्म ते क्वचित् । दानादिकर्मनिर्णाशिदुरिता यत्र संशुभाः ॥१९८
अर्थात् विशिष्ट केशरचना थी। परंतु यहांके लोगोंमें भंग विनाश-नहीं था। यहांकी उत्तम स्त्रियोंक नेत्रोंहीमें चापल्य अर्थात् कटाक्षविक्षप था । अन्यत्र चापल्य-बुद्धिकी अस्थिरता वहां नहीं थी। इस नगरीमें 'याच्ञा' -याचना करनेवाला कोई भी नहीं दीखता था, परंतु पाणिग्रहणकी योजनामें अर्थात् विवाहक्रियामें ' यात्रा' -कन्याकी याचना वरपक्ष करता था । यहां मृदंगहीमें ताडन था, अन्यत्र ताडनकी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि लोग नीतिपूर्वक प्रवृत्ति करते थे। इस नगरीमें ' मदनत्व' केवल वृक्षहीमें था अर्थात् मदन नामके वृक्ष यहां थे परंतु यहांके लोगोंमें मदनत्व (कामवेगसे अत्यंत पीडित होना) नहीं था । ' पतन' वृक्षके पर्णोहीमें था। परंतु पतनजातिपतन, व्रतोंसे पंतन, नीतिमार्गसे पतन आदि लोगोंमें नहीं था । लोप-नाश केवल क्किप्प्रत्ययमें था, परंतु लोगोंके व्रतादिकोंका लोप-नाश नहीं था। यहां स्पर्द्धा दान देनेमें थी । अन्यकार्योंमें नहीं थी । अपहार-चोरी करना लोगोंमें नहीं था परंतु कामी स्त्री पुरुष एक दुसरेके चित्तका हरण करते थे। यहां भीति केवल कामी पुरुषोंको स्त्रियोंके विषयमें थी अर्थात् हम यदि अनुकूल प्रवृत्ति नहीं करेंगे तो स्त्री रुष्ट हो जायगी इस तरहकी भीति मनमें धारण करते थे । इस नगरीमें केवल पुष्पोंकाही हरण अर्थात् वृक्षोंसे पुष्पोंको लाना-तोडनारूप क्रिया था। दूसरोंकी वस्तूका हरण नहीं होता था । निम्नत्व-गहरापना केवल नाभिमंडलमें था, अन्यत्र-लोगोंमें निम्नत्व-नीचपना नहीं था । इस नगरीमें केवल पत्थरहीमें 'विरसत्व' रसाभाव था। लोगोंमें विरसपना नहीं था । लोग सरस थे । वहां किसी भी जगहके लोग ज्ञानहीन नहीं थे और स्त्रियां अशील-शीलरहित नहीं थीं। यहांके वृक्ष फलातिग-फलोंसे रहित नहीं थे। सर्व वृक्ष फलोंसे लदे हुए थे । यहांके सर्व पदार्थ शोभायमान थे ॥ १९१-९५ ॥ प्रतीत होता है कि इस नगरने सब जगतको वशमें किया है अतः भयसे मानो सुन्दर परकोटेके बहानेसे शेषनाग इस नगरकी सेवा करता है ॥ १९६ ॥ इस नगरीमें सुखरूपी वृक्षके फल धारण करनेवाले धनवान तथा धीर मनुष्य धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थोंके फलरूप विभूतिको भोगते रहते हैं। इस नगरीके लोग
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