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________________ द्वितीयं पर्व देशानामाधिपत्यं यो दधान इव संवभौ । विभूत्या चामरैगैहैः सदातपनिवारणैः ॥१८२ कुरुभूमिसमत्वेन कुरुजाङ्गलनाममा । कुरुते कर्मनैपुण्यं यः कलाकाण्डसंविदाम् ।।१८३ हस्तिनागपुरं तत्र हस्तिसंहतिसंगतम् । हन्त्यहङ्कारकारित्वमहितानां च यत्सदा ॥१८४ ।। यत्र प्राकारकूटेषु धृतमुक्ताफलानि वा । तारा रेजुः प्ररथ्यायां हेमकुम्भायते विधुः ॥१८५ यत्खातिका विषाकीर्णा मणियुक्ता भयावहा । सेवागतेन शेषेण यथा मुक्ता निचोलिका ॥१८६ सतां यद्विशिखा ब्रूते मार्ग रोहावरोहणैः । स्वर्गस्याधोगतेर्नित्यं स्फीता सद्भूमिका वरा।।१८७ यत्रत्यजिनसमानि भव्यानाकार्य केवलम् । केतुहस्तेन वादित्रनादेनाहुबुधोत्तमाः ॥ १८८ यथास्माकं महोच्चत्वं तथा पुण्यवतां नृणाम् । श्रृङ्गाग्रलग्नसद्दण्ड किङ्किणीनादतः स्फुटम् ॥१८९ दानिनो धनिनो लोका ज्ञानिनो जितमत्सराः । परर्द्धिमहिमोपेता यत्र तिष्ठन्ति वत्सलाः॥१९० थीं ॥ १८० ॥ यहां खेतोंमें फलोंसे नम्र हुआ शालिधान्य पथिकलोगोंका आतिथ्य करनेके लिये मानों नम्र हुआसा दीखता था ॥ १८१ ।। यह कुरुजाङ्गल देश वैभव, चामर, प्रासाद तथा छत्रोंसे संपूर्ण देशोंका मानों स्वामित्व धारण करनेवाले राजाके समान शोभता था। यह देश देवकुरु और उत्तरकुरु भोगभूमिले समान होनेसे 'कुरुजाङ्गल' नामको धारण करता था। तथा गान, नृत्यादि कलाओंके जाननेवालोंके स्वकीय कार्योंका चातुर्य व्यक्त करता था। अर्थात् इस देशमें अनेक कलाभिज्ञ लोग रहते थे तथा उनके चातुर्यकी सर्व देशोंमें प्रसिद्धि हुई थी ॥ १८२-८३ ॥ [कुरुजाङ्गल देशकी राजधानी हस्तिनापुरका वर्णन ] इस कुरुजाङ्गल देशमें हाथियोंके समूहसे भरा हुआ हस्तिनापुर नगर है। जो सदा शत्रुओंके अहंकारको नष्ट करता था । जिसके परकोटेके शिखरोंपर ताराओंका समूह जडे हुए मोतियोंके समान शोभायमान होता था तथा चन्द्र पुरद्वारके ऊपर स्थित सुवर्ण-कलशके समान शोभा धारण करता था ॥ १८४-८५ ॥ इस नगरकी खातिका-खाई -सेवा करनेके लिये आये हुए शेषनागके द्वारा छोडी हुई विषाकीर्ण-विषपूर्णमणियुक्त, और भय दिखानेवाली मानों कांचलीही प्रतीत होती है। कारण यह खाई भी विषाकीर्ण - जलसे भरी हुई, मणि रत्नोंसे युक्त तथा भयावह थी । इस नगरका, उत्तम भूमिकाओंसे सुशोभित पुरद्वार ऊपर चढनेसे और नीचे उतरनेसे सज्जनोंको मानों स्वर्ग और नरकका मार्ग सदा बतलाता है ॥ १८६-८७ ॥ इस नगरीके जिनमंदिर केवल ध्वजरूपी हाथोंसे तथा वाद्योंकी ध्वनिसे तथा शिखरोंके अग्रभागमें लगे हुए दण्डके किंकिणीयोंकी ध्वानके द्वारा भव्योंको बुलाकर, हे विद्वच्छ्रेष्ठ जैसे हमको महान् उच्चता प्राप्त हुई है वैसी पुण्ययुक्त आप मनुष्योंको भी प्राप्त होगी ऐसा मानो स्पष्ट कहते थे ॥ १८८-८९ ॥ इस नगरीके निवासी धनी लोग दानी थे और ज्ञानी जन मत्सरभावरहित थे । उत्कृष्ट धनधान्यादि ऋद्धिसम्पन्न तथा लोकवत्सल थे। अर्थात् दीन अनाथादि--लोगोंपर दयाभाव रखते थे ॥ १९० ॥ इस नगरीमें स्त्रियोंके मस्तकके केशोंहीमें भंग था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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