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________________ द्वितीयं पर्व क्षत्रियाणां सुगोत्राणि व्यधायिषत वेधसा । चत्वारि चतुरेणैव राजस्थितिसुसिद्धये ॥१६३ सुवागिक्ष्वाकुराधस्तु द्वितीयः कौरवो मतः । हरिवंशस्तृतीयस्तु चतुर्थो नाथनामभाक् ॥१६४ को रवे कौरवे वंशे राजानौ रम्यलक्षणा । प्रवरौ सोमश्रेयांसौ स्थापितौ वृषभेशिना ॥१६५ अथ नीवृन्महाख्यातः कुरुजाङ्गलनामभाक् । नानारम्यगुणोपेतो भाति भूमण्डले भृशम् ॥१६६ भूगुणैबहुभूमीशोऽनन्तशर्मप्रदायकैः । अकृष्टपच्यधान्यौधैधत्ते यः सुगुणान्भृशम् ॥१६७ . यत्र क्षेत्राणि धान्यौषैः कालत्रयसमुद्भवैः। भृतानि भान्तिभूभर्तुः कोष्ठागाराणि वा भृशम्॥१६८ कुलीना सफला रम्या भोगानां साधनं शुभाः। यत्रारण्यश्रियो रेजू रामा इव महीपतेः॥१६९ ग्रामाः कुक्कुटसंपात्या रम्या रम्यैर्जनभृताः। राजन्ते स्म महाधामश्रेणिलक्षा महोत्कटाः॥१७० सरांसि सर्वसंतापहारीण्यमृतसंचयैः । स्वच्छानि यत्र शोभन्ते ध्यानानीव महामुनेः ॥१७१ स्थिति के लिये क्षत्रियाक चार वंशोंकी स्थापना की । पहिला मधुरवाणीवाला इक्ष्वाकु वंश, दूसरा कौरववंश, तीसरा हरिवंश और चौथा नाथवंश । वृषभेश्वरने जगतमें प्रसिद्ध कौरववंशमें सुंदर लक्षणोंवाले, श्रेष्ठ सोमप्रभ और श्रेयांस इन दो राजाओंकी स्थापना की ॥१६३-१६५।। [कुरुजाङ्गल देश और उसकी राजधानी आदिका वर्णन ] इस भूमण्डलमें अनेक रमणीय गुणोंसे भरा हुआ अतिशय शोभायमान कुरुजाङ्गल नामक महाप्रसिद्ध देश है। अनेक भूमिनायकोंसे युक्त वह देश विना बोए उत्पन्न होनेवाले, अनन्त सुख देनेवाले, पृथ्वीके गुणभूत धान्यसमूहोंके कारण अनेक गुणोंको धारण करता था ।। १६६-१६७ ॥ जिस देशमें तान कालोंमें वर्षाकाल, शीतकाल और उष्णकालमें उत्पन्न हुए धान्योंसे भरे हुए खेत राजाओंके धान्यसंग्रहालयों के समान अतिशय शोभते हैं ॥१६८॥ जिस देशकी वनशोभा राजाकी रानियोंके समान शोभायमान होती है। राजाकी रानियां कुलीन-उच्चवंशमें जन्मी हुई, सफल-फलवती-बालबच्चोंवाली, रम्या-सुन्दर, राजाके भोगोंके साधन तथा शुभ-कल्याणकारक होती हैं । और वनकी शोभा भी कुलीन-पृथ्वीमें संलग्न, सफला-अनेक ऋतुजन्य फलोंसे भरी हुई, रम्या-रमणीय, भोगानां साधनं-भोगोंकी साधनभूत तथा शुभ-हितकारक हैं ॥१६९॥ इस कुरुजाङ्गल देशके ग्राम कुक्कुटसम्पात्य अर्थात् मुर्गा उडकर एक गांवसे दुसरे गांवको जा सके इतने कम अन्तरपर बसे हुए हैं । वे सुन्दर और रमणीय लोगोंसे भरे हुए हैं । वे उन्नतिशाली ग्राम बडे बडे लक्षावधि महलोंकी पंक्तियोंसे सुन्दर दिखते हैं ॥ १७० ॥ इस देशके सरोवर महामुनियोंके शुक्लध्यानके समान शोभायमान हैं । महामुनियोंका ध्यान स्वच्छ मोहकर्ममल-रहित तथा सर्व-सन्तापहारी-संपूर्ण संसारतापको नष्ट करनेवाला होता है । तथा कुरुजाङ्गल देशके सरोवर स्वच्छ-कीचडसे रहित तथा समस्त प्राणियोंके शरीरसंतापको दूर करनेवाले हैं और अमृतके समान जलसमूहसे सदा भरे हुए हैं ॥ १७१ ॥ इस देशमें पक्वसंवेद्य तथा स्वकालस्थायी उत्तम शालिधान्य प्राणियोंके उत्कृष्ट कर्मोदयके समान शोभते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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