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________________ प्रथमं पर्व पुनः स मगधे देशे प्रतिबोधनपण्डिवः । वैभारं भूषयामास भास्वांश्चोदयपर्वतम् ॥१३५ वनपालो जिनेशस्य विभूति वाक्पथातिगाम् । वीक्ष्य विस्मयमापन्नो जगाम राजमन्दिरम्।।१३६ नृपं सिंहासनासीनं प्रकीर्णाकीर्णसद्भुजम् । छत्रबातगतादित्यतापं पापविवर्जितम् ।।१३७ नानानीवृत्समायातप्राभृते दत्तलोचनम् । मागधबातसंगीतगणद्गणकदम्बकम् ।।१३८ कृपाणकरकौलीन्यराजन्यशतसंस्तुतम् । सूर्यचन्द्राभसौरूप्यकुण्डलाभ्यां सुशोभितम् ॥१३९ मुकुटस्य मयूखेन लिखितं स्वं नभस्तले । हसन्तं हारिहारस्य किरणेन पराञ्जनान् ॥१४० कटकाङ्गदकेयरकान्त्या कृन्तिततामसम् । दन्तज्योत्स्नासमूहेन कलयन्तं च भूतलम् ॥१४१ दौवारिकनिदेशेन वनपालो महीभुजम् । वीक्ष्य नत्वा च विज्ञप्तिं चकरीति स्म सस्मयः।।१४२ राजस्त्रिजगतां नाथो नाथान्वयसमुद्भवः । भूषयामास वैभारं भूषयन्तं भुवस्तलम् ।।१४३ ।। यत्प्रभावान्महाव्याघ्री निघ्नचित्ता सविनिका। पस्पर्श सौरभेयीणां सन्तानं स्वसुतेच्छया।।१४४ विराट इन अनेक देशों में विद्वान लोगोंको जिनधर्मका उपदेश देते हुए विहार किया ॥१३२-३४॥ दिव्यध्वनिसे धर्मोपदेश देने में निपुण वीरप्रभुने मगध देशके वैभारपर्वतको पुनः सुशोभित किया। सूर्यने भी उदयाचलको अलंकृत किया ॥१३५॥ जिनेश्वरका वचनागोचर ऐश्वर्य देखकर वनपालको बहुत आश्चर्य हुआ और वह राज प्रासादमें गया ॥१३६॥ वहां द्वारपालकी अनुज्ञासे सिंहासनपर बैठे हुये, चामर जिनपर दुर रहे हैं, छत्रके कारण सूर्यका आताप जिनका दूर हुआ है, जो पापसे दूर है, अनेक देशोंसे आई हुई भेटोंपर जिनने दृष्टी दी है, स्तुतिपाठकोंके गीतोंमें जिनके गुणोंका वर्णन हो रहा है, तलवार धारण किए हुए सैंकडों राजाओंद्वारा जिनकी स्तुति की जा रही है, सूर्यचन्द्रके समान कुण्डलोंद्वारा जो शोभायमान हो रहे हैं, जिनके मुकुटकी किरणें आकाशमें फैल रही हैं, सुन्दर हारोंकी किरणोंसे औरोंको जो हंसते हुए दिखाई दे रहे हैं ऐसे कटक, अंगद और बाजूबंदोंकी कान्तिसे अन्धकारको दूर करनेवाले तथा दांतोंकी उज्ज्वल कान्तिसे भूतलको सुशोभित करनेवाले श्रेणिक महाराजाको देखकर आश्चर्यचकित वनपालने नमस्कार किया और इस प्रकार वह विज्ञप्ति करने लगा ॥१३७--४२॥ वीरप्रभूका वैभार पर्वतपर पुनरागमन] "हे राजन्, नाथ वंशमें उत्पन्न हुए त्रिलोकनाथ वीरप्रभूने पृथ्वीतलको सुशोभित करनेवाले वैभारपर्वतको भूषित किया है, अर्थात् प्रभु समवसरण सहित वैभार पर्वतपर पधारे हैं। उनके आगमनसे पर्वत अत्यंत शोभायमान दीख रहा है। प्रभूके प्रसादसे क्रूर व्याघ्री अपना स्वभाव छोडकर गायके बछडेको अपना बच्चा समझ प्रेमसे स्पर्श कर रही है। १ स. लिखन्तं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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