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________________ पाण्डवपुराणम् पूर्वाचार्यकृतार्थस्य प्रकाशनविधौ यते ।बध्नप्रकाशितं ह्यथं दीपः किं न प्रकाशयेत् ।। २६ वक्राकूतास्तु बहवः कवयोऽन्ये स्वभावतः । स्वल्पा यथा पलाशाद्या आम्राद्याश्च त्रिविष्टपे ॥२७ सन्ति सन्तः कियन्तोऽत्र काव्यदूषणवारकाः। स्वार्ण मलं यथा नित्यं शोधयन्ति धनञ्जयाः॥२८ असन्तश्च स्वभावेन परार्थ दूषयन्त्यहो । दिवान्धा द्वादशात्मानं यथा दूषणदूषिताः ॥ २९ वह्नयो दाहका नूनं तृषादुःखनिवारकाः । स्वर्ण मलं यथा नित्यं सन्तः सन्ति च भूतले ॥ ३० यथा मत्ता न जानन्ति हेयाहेयविवेचनम् । तथा खलाः खलं लोकं कुर्वन्ति खलु केवलम् ॥ ३१ पयोधरा धरां धृत्या धरन्त्यम्बुप्रदानतः । सज्जनास्तु जनान्सस्तिथा सन्तथ्यशिक्षया ॥ ३२ सो विषकणं दत्ते सुधां चामृतदीधितिः । खलोऽसाताय कल्पेत सज्जनस्तु हिताप्तये ।। ३३ खलेतरस्वभावोऽयं ज्ञातव्यो ज्ञानकोविदः। अलं तेन विचारेण वयं लघु हितैषिणः ॥ ३४ षड्विधाख्यायते व्याख्या व्याख्यातैस्तत्र मङ्गलम् । निमित्त कारण कर्ताभिधानं मानमेव च।।३५ पूर्वाचार्यद्वारा प्रगट किये हुए पुराणार्थको प्रकाशित करनेके लिए मैं प्रयत्न कर रहा हूं, क्या सूर्यप्रकाशित पदार्थोंको दीप प्रकाशित नहीं करता है ? ॥२६॥ [सज्जनदुर्जनवर्णन] जिस प्रकार पलाशादिक वृक्ष जगतमें बहुत हैं और आम्रादिक वृक्ष अल्प हैं, उसी प्रकार इस जगतमें कुटिल अभिप्रायवाले अर्थात् कुटिलहृदयवाले कवि स्वभावतः बहुत हैं और सरल अभिप्रायवाले कवि अल्प हैं ॥२७॥ जैसे अग्नि सदा सोनेका मल दूर करता है, वैसेही काव्यमलको दूर करनेवाले कितनेही सज्जन इस जगतमें हैं ॥२८॥ जिसतरह दूषणोंसे दूषित उल्टू पक्षी सूर्य को दोष देते हैं, उसीतरह दृष्टपुरुष स्वभावसे ही दूसरेकी कृतिको (काव्यको) दोष देते हैं ॥२९॥ इस भूतलमें जिसतरह अग्नि सोनेके मलको दूर करती है, उसीतरह सज्जनपुरुष तृष्णाजन्य दुःख को दूर करते हैं ॥३०॥ जैसे मत्तपुरुष ग्राह्य अग्राह्यका कुछ विचार नहीं करते, वैसेही दुष्ट पुरुष अच्छे बुरेका विचार नहीं करते हैं, परंतु निश्चयसे वे लोगोंको दुष्ट ही बनाते हैं ॥३१|| जैसे मेघ जल देकर पृथ्वीको शान्त करते हैं, वैसेही सज्जन सभी लोगोंको सम्यक् हितोपदेशसे हितकार्यमें स्थापन करते हैं ॥३२॥ जैसे सर्प विषकण देता है, वैसेही दुष्टजन लोगोंको दुःख देते हैं और सज्जन उनका हित करते हैं ॥३३॥ इस प्रकार सज्जनदुर्जनोंका स्वभाव ज्ञानियोंके द्वारा जानने योग्य है । अस्तु, इस विषयका इतना ही विचार पर्याप्त है, क्योंकि हम थोडेमें ही हित चाहने वाले हैं ॥३४॥ __ [व्याख्यानके छह प्रकार ] पुराणका निरूपण करनेवाले आचार्योने व्याख्याके छह प्रकार कहे हैं। वे इस प्रकार हैं- मंगल, निमित्त, कारण, कर्ता, अभिधान और मान ॥३५॥ प्राचीन कथाओंके १ स. यथा घनास्तथा दुष्टाः सन्तः सन्ति च भूतले । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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