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पाण्डवपुराणम्
साहाय्यं स चिरं जीयाद्वरविद्याविभूषणः ॥१८३ ये श्रृण्वन्ति पठन्ति पाण्डवगुणं संलेखयन्त्यादरात् लक्ष्मीराज्यनराधिपत्यसुरतां चक्रित्वशक्रेशिताम् । मुक्त्वा भोगमिदं पुराणमखिलं संबोश्वत्युनताः मुक्तौ ते भवभीमनिम्नजलधि सन्तीर्य सातं गताः ॥१८४ अर्हन्तो ये जिनेन्द्रा वरवचनचयैः प्रीणयन्तः सुभव्यान् सिद्धाः सिद्धिं समृद्धिं ददत इह शिवं साधवः सिद्धियुद्धाः । एक्सद्बोधं सुवृत्तं जिनवरवचनं तीर्थरादप्रोक्तधर्मस्तत्सञ्चैत्यानि रम्या जिनवरनिलयाः सन्तु नस्ते सुसिद्धथै ।।१८५ यावञ्चन्द्रार्कताराः सुरपतिसदनं तोयधिः शुद्धधर्मों यावद्भगर्भदेवाः सुरनिलयगिरिदेवगङ्गादिनद्यः। यावत्सत्कल्पवृक्षास्त्रिभुवनमहिता भारते वै जगत्याम् तावस्थेयात्पुराणं शुभशतजनकं भारतं पाण्डवानाम् ॥१८६
श्रीमद्विक्रमभूपतेर्द्विकहतस्पष्टाष्टसंख्ये शते रम्येष्टाधिकवत्सरे सुखकरे भाद्रे द्वितीयातिथौ ॥
है, अनंतर उत्तम पुस्तकमें लिखा है। शास्त्रके अर्थसंग्रहमें जिसने साहाय्य किया है वह उत्कृष्ट विद्याका अलंकार धारण करनेवाला श्रीपालवी चिरंजीव रहें ॥ १८२-१८३ ॥ पाण्डवगुणोंका वर्णन जिसमें हैं ऐसा यह पाण्डवपुराण जो भव्य सुनते हैं; पढते हैं तथा आदरसे लिखते हैं, वे लक्ष्मी, राज्य, मनुष्योंका प्रभुत्व, देवत्व, चक्रिपना, इंद्रत्व और भोगको भोगकर बार बार उन्नत होते हैं।
और संसाररूपी भयंकरसमुद्रको तीरकर मुक्तिमें सुखको भोगते हैं ॥ १८४ ॥ जो अपने उत्तम पचनसमूहसे भव्योंको आनंदित करते हैं ऐसे अर्हत् जिनेन्द्र, सिद्धि और समृद्धिको देनेवाले सिद्धपरमेष्ठी, सिद्धिके लिये शुद्ध हुए साधु ( आचार्य, उपाध्याय और साधुपरमेष्ठी ) जो कि सुख देते हैं, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, जिनेश्वरकी वाणी, तीर्थकरोंका कहा हुआ धर्म, तीर्थकरोंकी प्रतिमायें, सुंदर जिनमंदिर ये सब हमारे सिद्धि के लिये होवें ॥ १८५ ॥ जबतक चन्द्र, सूर्य, तारा, इंद्रका वैजयन्त प्रसाद, समुद्र, तथा निर्मल जैनधर्म रहेंगे, जबतक पृथ्वीके गर्भ में भवनवासी धरणेन्द्रादिक, देवोंके प्रासादसे रमणीय मेरुपर्वत, देवगंगादि नदियां रहेंगी, जबतक त्रिलोकमें मान्य कल्पवृक्ष रहेंगे तबतक इस भारतभूमिपर सैंकडो शुभोंको जन्म देनेवाला पाण्डवोंका यह भारत-पुराण रहें ॥१८६॥
[पाण्डव-पुराण-रचनाकाल ] श्रीमान् विक्रमराजाके १६०८ सोलहसौ आठ के रमणीय वत्सरमें सुखदायक भाद्रपद द्वितीया तिथिके दिन लक्ष्मीसंपन्न वाग्वर या वागड प्रान्तमें शाकवाट
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