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पञ्चविंशं पर्व
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चिरं प्रपाल्य चारित्र शुद्धसम्यक्त्वसंयुताः । जघ्नुस्त्रैणमयं घोरं ता विघ्नौघविघातिकाः ।। स्वायुरन्ते च संन्यस्य स्वाराधनचतुष्टयम् । मुक्तासवः समाराध्य जग्मुस्ताः षोडशं दिवम् ॥ सुरत्वसंश्रिताः सर्वाः पुंवेदोदय भाजिनः । सामानिकसुरा भूत्वा तत्रत्यं भुञ्जते सुखम् ॥१४४ द्वाविंशत्यब्धिपर्यन्तं सातं संसेव्य स्वर्भवम् । प्राणातीताः सुपर्वाणः संयास्यन्ति परासुताम् ॥ ते नृलोके नृतामेत्य तपस्तप्त्वा सुदुस्तरम् । ध्यानयोगेन सेत्स्यन्ति कृत्वा कर्मक्षयं नराः ॥ अथ नेमीश्वरो धीमान्विविधान्विषयान्वरान् । विहृत्य सुरसंसेव्य मागादैवतकाचलम् ॥ १४७ मासमात्रावशेषायुः संहृत्य स ध्वनध्वनिम् | योगं च निष्क्रियस्तस्थौ पर्यङ्कासनसंगतः ॥ गुणस्थानं समासाद्यान्तिमं श्रीनेमितीर्थकृत् । पञ्चाशीतिप्रकृतीनां क्षयं निन्ये जिनाधिपः ।। शुक्ले शुचौ च सप्तम्यां षट्त्रिंशदधिकैः सह । प्राप पञ्चशतैर्मुक्तिं योगिभिर्नभिनायकः ।। १५० सुरासुराः समायाताः सिद्धिसंगमहोत्सवे । कृत्वा निर्वाणकल्याणं ययुस्तद्गुणवाञ्छकाः ॥
[ कुन्ती, द्रौपदी आदिकों को अच्युतस्वर्ग में देवपदप्राप्ति ] राजीमती, कुन्ती, सुभद्रा और द्रौपदी ये चार महासयी आर्यिकायें धर्म में तत्पर होकर सम्यक्त्वके साथ चारित्रको धारण करने लगीं। उन शुद्ध सम्यक्त्वको धारण करनेवालीओने दीर्घ कालतक चारित्रका पालन किया । विघ्नसमूहका विनाश करके उन्होंने भयंकर दुःखदायक स्त्रीपर्यायका नाश किया। आयुष्य के समाप्त कालमें उन्होंने शरीर म्लेचना व कषायसल्लेखना धारण की। दर्शनादिक चार आराधनाओंकी आराधना करके प्राण छोडकर सोलहवे स्वर्ग में प्रयाण किया ।। १४१ - १४३ || वे सर्व आर्यिकायें पुंवेदको धारण करनेवाले देवत्वसे युक्त सामानिक देव हुई। अब वे स्वर्गीय देव - सुखका अनुभव कर रही हैं । बाईस सागरोपम कालतक स्वर्गीय सुख सेवन कर व देव प्राणों को छोडकर मृत्युवश होंगे ॥ १४४-१४५ ॥ वे देव इस मनुष्य लोकमें मनुष्य होकर दुर्धर तपश्चरण करके शुक्लध्यानके द्वारा कर्मक्षय करके सिद्ध होंगे ॥ १४६ ॥
[ नेमिप्रभुका निर्वाणोत्सव ] तदनंतर केवलज्ञानी नेमिजिनेश्वर अनेक उत्तम - आर्य देशों में विहार करके देवोंसे सेवित होते हुए रैवतकपर्वतपर आये । जब उनकी आयु एक मासकी रही तब उन्होंने दिव्यध्वनि और योगका उपसंहार किया अर्थात् दिव्यध्वनिसे उपदेश देना बंद किया और विहारभी बंद किया । क्रियारहित होकर पर्यंकासन से वे बैठ गये । अयोग- केवल नामक अन्तिम-चौदहवां गुणस्थान प्रभु नेमितीर्थकरने धारण किया । उसमें पचासी कर्म-प्रकृतियोंका नाश किया । आषाढ शुक्ल सप्तमीके दिन पांचसौ सैंतीस मुनियों के साथ श्रीनेमिप्रभु मुक्त हुए। प्रभु मुक्ति-लक्ष्मी के संगमके उत्सव में देव और अनुर आये प्रभुके गुणों को चाइनेवाले देवोंने उनका निर्वाण - कल्याण किया अनंतर वे स्वस्थानमें चले गये
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१४७ - १५१ ॥
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