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पञ्चविंशं पर्व
५०७ निरुध्येति मनोयोगं शुद्धयोगं समाश्रिताः । श्रेणिमारुरुङस्तूर्ण क्षपका पाण्डवास्त्रयः ॥१२६ शुद्धध्यानं समाध्यास्य प्रबुद्धाः शुद्धचेतसि । ते ध्यायन्ति निजात्मानं निर्विकल्पेन चेतसा ।। अधाकरणमाराध्य स्वापूर्वकरणस्थिताः । आयुर्मुक्तास्तदा ते चानिवृत्तिकरणं श्रिताः ॥१२८ समातपादिदुःकर्मत्रयोदशविनाशकाः । अष्टाविंशतिग्वृत्तमोहशातनसद्भटाः ॥१२९ पश्चध्यावरणध्वंसे नवग्वृतिवारणे । पञ्चविधौघघातार्थ तेऽभूवंश्च समुद्यताः ॥१३० त्रिषष्टिप्रकृतैरेवमप्रमचादितः क्षयम् । व्यधुः क्षीणकषायान्ते प्रथमाः पाण्डवास्त्रयः ॥१३१
उन्होंने आश्रय लिया। और तीन पाण्डव (नकुल सहदेवको छोडकर) शीघ्र क्षपकश्रेणीपर चढने लगे। महाविद्वान् पूर्वश्रुतधर वे तीन पाण्डवमुनि शुक्लध्यानपर आरोहण करके निर्विकल्प मनमें-रागद्वेषरहित मनसे शुद्ध मनमें अपनी आत्माके स्वरूपमें एकात्रचित्त हो गये ॥ १२४१२७ ॥ अधःकरणकी आराधना करके वे पाण्डवत्रिक अपूर्वकरणके परिणाम धारण करने लगे। अनंतर नरकायु, तिर्यगायु और देवायुके बंधसे रहित वे अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें आये । ( अधःकरणमें जो काल है उसमें ऊपरके समयवर्ती जीवोंके परिणाम नीचेके समयवर्ती जीवोंके परिणामोंके सदृश अर्थात् संख्या और विशुद्धिकी अपेक्षा समान होते हैं। क्षपकणिमें चढनके पूर्व होनेवाले परिणामोंको आगममें अधःप्रवृत्त करण कहा है। चारित्र मोहनीयके अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादिक चार कषाय, प्रत्याख्यानके चार कषाय, संज्वलनके चार कषाय ऐसे बारह कषाय तथा नौ नोकषाय ऐसे इक्कीस कषायोंका क्षय करनेके लिये अधःकरणादि तीन प्रकारके. परिणाम चरमशरीरधारी मुनिको होते हैं इन तीन परिणामोंसे प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धता हो जाती है । इन परिणामोंसे कर्मोंका क्षय, स्थितिखण्डन, अनुभागखण्डन होता है । अप्रूव करण गुणस्थानमें पूर्वमें कभी नहीं हुए थे ऐसे विशुद्ध परिणाम होते हैं। इस गुणस्थानमें समसमयमें वर्तमान जीवोंके परिणाम सदृश विसदृश दोनोंही होते हैं परंतु भिन्न समयमें स्थित जीवोंके परिणामोंमें कभीभी समानता नहीं होती हैं। अनिवृत्ति-करण-गुणस्थानमें वर्तमान जीवके परिणाम समसमयमें जीवोंके समानही होते हैं और भिन्न समयमें स्थित जीवोंके परिणाम विसदृशही होते हैं। इस गुणस्थानमें इन परिणामोंसे आयुकर्मके विना बचे हुए सात कर्मोकी गुणश्रेणि निर्जरा गुण संक्रमण, स्थितिखंडन और अनुभागखंडन होता है, तथा मोहनीय कर्मकी बादर- कृष्टि, सूक्ष्मकृष्टि आदिक होती है ॥ १२८॥ आतपादिक अशुभकर्मीकी तेरा प्रकृतियोंका उन्होंने नाश किया दर्शन मोहनीय और चारित्र-मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंको नष्ट करनमें वे तीन पाण्डवमुनि महाभट थे। पांच ज्ञानावरणकर्मके ध्वंसके लिये और दर्शनावरणकी नौ प्रकृतियोंका नाश करनेके लिये तथा पांच अन्तरायकर्मके विनाशार्थ वे उद्युक्त हुए ॥ १२९-१३० ।। अप्रमच गुणस्थानसे क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्ततक उन प्रथमके तीन पाण्डवोंने तिरसठ प्रकृतिका क्षय किया ॥१३१॥
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