________________
५०५
पश्चविंशं पर्व पूर्ववदाम्यसि प्राणिन् सत्यज्ञाने पुनः पुनः । न हि कार्यक्षयो नूनं जृम्भमाणे च कारणे ॥ लोकवौचित्र्यमावीक्ष्याधोमध्यो विभेदगम् । स्वसंवेदनसिद्धयर्थ शान्तो भव सुखी यतः॥
लोकानुप्रेक्षा। भव्यत्वं च मनुष्यत्वं सुभूजन्मकुलस्थितिः । क्रमात्ते दुर्लभं चात्मन् समवायस्तु दुर्लभः ।। समवायोऽपि ते व्यर्थो न चेद्धर्मे मतिः परा । कि केदाराधिगुण्येन कणिशोद्गमता न चेत् ॥ पुनस्तु दुर्लभो धर्मः श्राद्धानां योगिनां पुनः । लब्बे योगीन्द्रधर्मेऽपि दुर्लभं स्वात्मबोधनम् ।। खात्मबोधिः कदाचिचेल्लब्धा योगीन्द्रगोचरा । चिन्तनीया भृशं नष्टा वित्तमर्षणवत्सदा ॥ नात्मलाभात्परं ज्ञानं नात्मलाभात्परं सुखम् । नात्मलाभात्परं ध्यानं नात्मलाभात्परं पदम्॥ लब्ध्वात्मबोवनं धीमान्मति नान्यत्र संभजेत् । प्राप्य चिन्तामणि काचेको रतिं कुरुते पुमान् ॥
बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा । जिनधर्मः सदा सेन्यो यत्प्रभावाच्च देवता । भविता श्वापि विश्वेषां नाथः स्याद्धर्मतो नरः॥
तो पूर्वके समान लोकमें पुनः पुनः तुझे भ्रमण करना पडेगा । क्यों कि कारण बढते जानेपर कार्यका नाश कैसे होगा? लोकके, अधोलोक मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक ऐसे तीन भेद हैं उनमें नाना प्रकारके वैचित्र्य भरे हुए हैं। हे आत्मन् उनको देखकर तूं स्वसंवेदनसिद्धिके लिये शान्त हो, जिससे तुझे सुखकी प्राप्ति होगी ॥ १०८-११० ॥
[बोघिदुर्लभानुप्रेक्षा ] हे आत्मन् भव्यत्व-रत्नत्रय प्राप्तिकी योग्यता, मनुष्यपना, उत्तम क्षेत्रमें-आर्यखंडमें जन्म, उत्तम कुलमें पैदा होना, ये बातें क्रमसे दुर्लभ हैं। फिर मवाय-इन भव्यत्वादिकोंका समूह तो दुर्लभ है ही। हे आत्मन्, यदि तुझे धर्ममें बुद्धि प्राप्त नहीं होगी, तो इनका समवाय-समुदायका पाना व्यर्थ होगा। यदि धान्यकी उत्पत्ति न होगी तो ग्वतके उत्तम गुणोंका क्या उपयोग है ? श्रावकोंका धर्म दुर्लभ है उससेभी योगियोंका धर्म पुनः अधिक दुर्लभ है। मुनीश्वरका धर्म प्राप्त होनेपरभी अपने स्वरूपका ज्ञान होना दुर्लभ है। योगीन्द्रोंको जिसका अनुभव आता है ऐसी आत्मबोधि ( आत्मलाभ ) कदाचित् प्राप्त हुई तो उसका पुनः पुनः अतिशय चिन्तन, मनन, निदिध्यास करना चाहिये । जैसे कोई धनिक धन नष्ट नहीं होरे इस हेतुसे उसका रक्षण, अर्जन और संवधन करता है। आत्मलाभसे दुसरा ज्ञान नहीं है, यही श्रेष्ठ ज्ञान है। आत्मलाभसे दूसरा सुख नहीं है, यही सर्व श्रेष्ठ सुख है। आत्मलाभसे दूसरा ध्यान नहीं है, यही सर्वश्रेष्ठ ध्यान है और आत्मलाभसे दूसरा पद नहीं है अर्थात् यही सर्वश्रेष्ठपद है । आत्मबोध होनेपर बुद्धिमान् अपनी मति अन्यवस्तुमें नहीं लगावें। चिन्तामणि प्राप्त होनेपर कौन मनुष्य काचमें प्रेम करेगा ॥ १११-११६ ॥
पां. ६४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org