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पाण्डवपुराणम् आस्रवाणां निरोधस्तु संघरो धर्मगुप्तिभिः । अनुप्रेक्षातपोध्यानैः समित्या क्रियते बुधैः ।। संवरे सति नो जन्तुः संसाराब्धौ निमजति । वेष्टं पदं प्रयात्येव निश्छिद्रा नोरिवाणेवे ॥ अस्मिनक्लेशगम्ये त्वमात्माधीने सदा मतिः। श्रेयोमार्गे व्यधा बाह्ये मतिभ्रमणतः किमु ॥
संवरानुप्रेक्षा। रत्नत्रयेण संबद्धकर्मणां निर्जरा भवेत् । अग्निह्यं किमाध्मातो निःशेष सावशेषयेत् ॥१०५ सविपाकाविपाकेन निर्जरा द्विविधा भवेत् । आद्या साधारणा जन्तोरन्या साध्या व्रतादिभिः॥ अनास्रवात्क्षयादात्मन्केवल्यसि च कर्मणाम् । आस्रवे निर्गतेऽशेषे धाराबन्धे पयः कुतः॥
निर्जरानुप्रेक्षा। प्रसारिताधिनिक्षिप्तकटिहस्तनरोपमः । आद्यन्तरहितो लोकोऽकृत्रिमः कैर्न निर्मितः ॥१०८
. . [ संवरानुप्रेक्षा ] आस्रवोंको अपने आत्मामें नहीं आने देना संवर है। कर्मागमनके प्रतिबंधको संवर कहते हैं। वह संवर दशधर्म, तीन गुप्ति, बारह अनुप्रेक्षा, बारह तप और पांच समिति तथा धर्मभ्यान शुक्लध्यानों से होता है। संवर होनेपर यह प्राणी संसारसमुद्रमें नहीं डूबता है तथा वह इच्छितस्थान-मुक्तिस्थानको प्राप्त कर लेता है। जैसे कि निश्छिद्र नौका समुद्रमें इच्छित स्थानको मनुष्यको ले जाती है। हे आत्मन्, यह मोक्षमार्ग विनाक्लेशसे प्राप्त होता है तथा आत्माके आधीन है इस लिये तू इसमेंही अपनी बुद्ध लगा दे। बाह्यमें अपनी मति दौडानेसे क्या लाभ होगा।॥१०२-१०४॥
[निर्जरानुप्रेक्षा ] रत्नत्रयकी प्राप्ति होनेसे पूर्वभवोंमें बंधे हुए कर्मोंकी निजरा होती है। वे कर्म अपना फल देकर निकल जाते हैं। जब अग्नि प्रज्वलित होता है तब जलाने योग्य लकडी आदि संपूर्ण वस्तुओंको जलाता है क्या उनमेंसे कुछ वस्तुएँ बच जाती हैं ? निर्जराके सविपाका निर्जरा और अविपाका निर्जरा ऐसे दो भेद हैं। पहिली सामान्य है वह सभी संसारिप्राणिओंको होती है परंतु दुसरी व्रत, समिति, तप आदिकोंसे व्रतधारियोंको होती हैं । योग्य कालमें कर्म उदयमें आकर फल देता है और आत्मासे वह निकल जाता है उसे सविपाकानिर्जरा कहते हैं। और आगे उदयमें आनेवाले कर्मको पूर्वकालमें उदयमें लाकर उसका फल भोगकर उसे आत्मासे निकाल देना अविपाका निर्जरा है। नया कर्म आत्मामें नहीं आनेसे और पूर्वकर्मोका क्षय होनेसे आत्मा केवली हो जाता है अर्थात् सर्व-कर्ममुक्त, अनन्तज्ञानादिगुण-परिपूर्ण, सिद्ध परमात्मा होता है। जैसे तालावमें नया पानी आना बंद हुआ और बचा हुआ पानी सूख गया तो उसमें पानी कैसे रहेगा? ॥ १०५-१०७॥
लोकानुप्रेक्षा ] जिसने अपने दो पांव फैलाये हैं और अपनी कमरपर दो हाथ स्थापन किये हैं ऐसे मनुष्यके समान इस लोककी-जगतकी आकृति हैं। यह लोक अनादि और अनिधन है अकृत्रिम है। ब्रह्मादिकोंने इसे नहीं उत्पन्न किया है। हे आत्मन् यदि तुझमें अज्ञान होगा,
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