________________
पाण्डव पुराणम्
द्वाविंशतिसुपक्षान्ते परमोच्छ्रासश्वासिनः । विशन्तः परमं सातं द्वाविंशत्यब्धिजीविनः ॥ इति जिनवरधर्माद्ध्वस्तमोहान्धकाराः, अमरनिकरसेव्या लोकनाथस्य भूतिम् । त्रिभुवनजिनयात्राः संभजन्तो व्रजन्तो, विमलतरसुदेवीसेवितास्ते जयन्तु ॥ १२० मुक्त्वा मानुषसंभवं वरसुखं संसारसारं सदा कृत्वा घोरतरं तपो द्विदशगं हित्वोपधीन्धीधनाः । याता येऽच्युतनाम्नि देवनिलये ते पुण्यतः पावनाः ज्ञात्वैवं विबुधा भजन्तु सुवृषं सिद्धिप्रदं श्रेयसे ।। १२१ इति श्रीपाण्डवपुराणे भारतनाम्नि भ. श्रीशुभचन्द्रप्रणीते ब्रह्मश्रीपालसाहाय्यसापेक्षे पाण्डवभवान्तरद्वयवर्णनं त्रयोविंशतितमं पर्व || २३ ॥
१८२
• । चतुर्विंशं पर्व ।
नमीम महारिष्टनेमिं नम्रनरामरम् । द्विधा धर्मरथे नेमिं न्यायनिश्चयकारकम् ॥१
जिनेश्वरके धर्माचरण से जिन्होंने मिथ्यात्व - मोहरूप अंधारको नष्ट किया है, जो देवसमूहसे सेवनीय थे, लोकपति जिनेश्वरके ऐश्वर्यको अर्थात् उनके समवसरणको जो भजते थे वहां जाकर प्रभुका उपदेश सुनते थे, त्रिभुवन में स्थित अकृत्रिम जिन - प्रतिमाओंकी यात्रा - दर्शन, पूजन, वंदन वे करते थे, जिनकी अतिशय स्वच्छ - पवित्र सुंदर देवतायें सेवा करती थीं ऐसे वे सामानिक देव जयवंत रहे ॥ १२० ॥ जिन्होंने मनुष्यभवमें प्राप्त होनेवाले उत्तम सुखका त्याग किया, जिन्होंने संसारमें सारभूत अतिशय तीव्र बारह प्रकारका तप किया, जिन बुद्धिधनोंने विद्वानोंने परिग्रहोंका त्याग किया, जो अच्युत नामक सोलहवे स्वर्ग में पुण्यसे उत्पन्न हुए वे पांच मुनि और आर्यिका महा पवित्र आत्मा थे। ऐसा जानकर उनके समान कल्याण प्राप्त करने के लिये हे विबुधगण, तुम मुक्ति देनेवाला सुष्टुप - उत्तम धर्म अर्थात् जिनधर्म धारण करो ॥ १२१ ॥
ब्रह्म श्रीपालकी सहायता से भट्टारक श्रीशुभचन्द्रजीसे विरचित महाभारत नामक पाण्डवपुराण पाण्डवोंके दो भवका वर्णन करनेवाला तेवीसावा पर्व समाप्त हुआ ॥ २३ ॥
[ चौवीसवां पर्व ]
जो यतिधर्म और गृहस्थधर्मरूप धर्मरथके पहियोंके ऊपर नेमिके समान- - लोहेकी पट्टीके समान है, प्रमाण नयरूप न्यायके द्वारा जो जीवादि तत्त्वोंका निश्चय करते हैं, जिनके चरणमूलमें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org