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________________ आयोति पर्व ४९९ आराधना समाराध्य विधुधिषणापतः। हित्वा प्राणान्सुसर्वार्थसिदि सापयति स्म च ॥ सोमदत्तादयो ज्ञात्वा दोष नागश्रिया कृतम् । विरक्ता भवभोगेषु बभूवन्यसत्तमाः॥१०८ वरुणस्य पुसे पाईं गत्वा नस्वा मुनीश्वरम् । जगृहुः परमं वृत्तं विप्राः सचिसंश्रिताः॥ दे बामण्यौ परे प्रीते दृष्ट्वा नामश्रियाः कृतिम् । गुणवत्यार्थिकाम्यणे प्रावाजिष्टां विरज्य च ॥ धर्मध्यानरताः पश्च विशुद्धाचारचारिणः । बाह्यमाभ्यन्तरं तत्र तपन्ति स्म परं तपः॥ अन्ते संन्यासमादाय दयादद्मशमोमताः। हित्वा प्राणांस्त्रयस्तूर्णमारणाच्युतयोर्गताः॥११२ बामण्यावपि संशुद्धे चरन्त्यौ चरणं चिरम् । शुद्धसाटीश्रिते रम्ये रेजतू रञ्जितात्मके ॥ सदर्शनवलाच्छित्वा स्त्रीलिंग संगवर्जिते । संन्यस्य जग्मतुस्ते द्वे आरणाच्युतयोर्द्वयोः ॥११४ सामानिकाः सुरास्तत्र सातं सर्वोत्तमं सदा । संभजन्तश्चिरं तस्थुः पश्चैते परमोदयाः ॥११५ उपपादशिलाप्राप्तदिव्यदेहाः स्फुरत्प्रभाः। अवधिज्ञानविज्ञातपूर्ववृत्तान्तवेदिनः ॥११६ नर्तकीनटनालोका विशोकाः शङ्कयातिगाः। नम्रामरमहाव्यूहा नानानीकविराजिताः॥ शुद्धाम्भःस्नानसंसक्ता जिनपूजापवित्रिताः। द्वाविंशतिसहस्राब्दमानसाहारहारिणः ॥११८ धारक हुए। धनश्री और मित्र श्री दोनों ब्राह्मणियां भी जो जैनधर्मपर अतिशय प्रेमयुक्त थीं, नागश्रीकी कृति देखकर विरक्त हुई और गुणवती आर्यिकाके पास उन्होंने आर्यिकापदकी दीक्षा धारण की । वे पांचो भी-तीन मुनि और दो आर्यिकायें धर्मध्यानमें तत्पर रहने लगे, दर्शनाचारादिक पांच विशुद्ध आचारोंका पालन करने लगे। बाह्य और अभ्यन्तर उत्तम तप तपने लगे। दया, जितेन्द्रियता तथा कषायोपशमसे विशिष्ट आत्मगुणोंकी उन्नति धारण करनेवाले उन मुनियोंने आयुष्यके अन्तमें संन्यासपूर्वक प्राणत्याग किया और वे आरणाच्युतमें शीघ्रही उत्पन्न हुए ॥ १०५-११२॥ जिन्होंने शुद्ध साडी धारण की है, उपचरित महाव्रतोंमें जिनका आत्मा अनुरक्त हुआ है ऐसी पवित्र परिणामवाली दो ब्राह्मणी आर्यिकायें दीर्घकालतक चारित्र धारण करती हुई शोभने लगी। परिप्रहोंका त्याग कर उन दो आर्यिकाओंने संन्यास धारण किया और सम्यग्दर्शनके बलसे स्त्रीलिंगको छेदकर दोनों आरणाच्युतस्वर्गमें सामानिक देव हुई। उस स्वर्गमें महाऋद्धिओंके धारक वे पाच सामानिक देव सर्वोत्तम सुखको हमेशा भोगते हुए दीर्घकालतक रहे । उपपादशिलासे उनके दिव्यदेहकी उत्पत्ति हुई, वे पांचोंही अतिशय कांतिसंपन्न थे। अवधिज्ञानसे पूर्व वृत्तान्तको वे जानते थे । नर्तकियोंका नृत्य देखनेवाले, शोक रहित, शंका-भीतिसे दूर रहनेवाले, वे नानाविध सैनिकोंसे शोभने लगे। उनको देवसमूह नमस्कार करते थे। वे शुद्ध जलसे स्नान करके जिनपूजा करके पवित्र होते थे। बावीस हजार वर्ष बीतनेपर वे मानसिक आहार ग्रहण करते थे। बावीस पक्ष अर्थात् ग्यारह महिने बीतनेपर उत्तम सुगंधित उच्छ्वासको लेते थे। उत्तम सुखका अनुभव लेनेवाले बाईस सागर वर्षतक जीवन धारण करनेवाले वे सामानिक देव वहां रहे ॥११३-११९॥ इस प्रकार पां. ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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