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प्रयोविंशं पर्व
৪৩ द्वादशाविरतीर्जीवाः कुर्वन्तो भवसंभवाः । विपदा यान्ति वेगेन विषयामिषलोलुपाः ॥२९
कषन्ति सद्गुणान्सर्वान् जीवानां बुद्धिशालिनाम् ।
कषायास्ते मतास्तज्ज्ञैस्त्याज्या मोक्षसुखाप्तये ॥ ३० युज्यन्ते कर्मभिः सत्रं जीवा यैस्ते मता बुधैः । योगाः शुभाशुभा हेयाः श्रेण्यसंख्येयमारकाः।। मद्यवत्संप्रमाद्यन्ति यतो जीवा मदोद्धताः । ते प्रमादाः सदा त्याज्या यतः संसारसंभवः॥ कौन्तेयाः सततं चित्ते चिन्तयित्वेति निर्ययुः । ततस्तु पल्लवं प्रापुर्नीवृतं जिनसंश्रितम् ॥३३ सुरासुरैः सदा सेव्यं तत्र नेमिजिनेश्वरम् । लोकत्रयसुसेव्यत्वाच्छत्रत्रयसुशोभितम् ॥३४ शोकशङ्कापहारित्वादशोकानोकहाङ्कितम् । चतुःषष्टिचलचारुचामरैः परिवीजितम् ॥३५ जगत्रयसुशीर्षस्थमिव सिंहासनाश्रितम् । सामोददिव्यदेहत्वात्पुष्पवृष्टयोपशोभितम् ॥३६ कर्मारिजयतो जातदिव्यदुन्दुभिदीपितम् । अष्टादशमहाभाषाभाषणैकमहाध्वनिम् ॥३७ सूर्यकोटिसमुद्भासिभास्वद्भामण्डलामलम् । वीक्ष्य ते पाण्डवा भक्त्या पूजयन्ति स्म पूजनैः।। स्तोतुमारेभिरे देवं पाण्डवाः पावनाः पराः। नावायसे नृणां नाथ संसाराब्धौ त्वमेव हि ॥ त्वमेव जगतां नाथस्त्वमेव परमोदयः । त्वमेव जगतां त्राता त्वमेव परमेश्वरः ।।४०
लुब्ध हुए जीव इन बारह अविरतिरूप परिणाम करते हुए वेगसे विपदाओंको प्राप्त होते हैं ॥२९॥ बुद्धिशाली जीवोंके सब सद्गुणोंको जो नष्ट करते हैं, घातते हैं उनको तज्ज्ञ जीव कषाय कहते हैं। मोक्षसुखकी प्राप्तिके लिये उनका त्याग करना चाहिये ॥ ३०॥ जिनके द्वारा जीव कमौके साथ जोडे जाते हैं, उनको विद्वानोंने योग कहा है। वे शुभयोग और अशुभयोग इस तरह दो प्रकारके हैं । पुनः इनके श्रेणिके असंख्यातवे भागप्रमाण भेद होते हैं ॥ ३१ ॥ जिनसे जीव मद्य पीनेवाले के समान मदोद्धत होते हैं वे प्रमाद सदा त्यागने योग्य होते हैं, क्योंकि इनसे संसारकी उत्पत्ति होती है ॥ ३२ ॥ इस प्रकारसे सर्व पाण्डव मनमें संतत विचार करके उस स्थानसे निकले और जिनेश्वरने जिसका आश्रय लिया है ऐसे पल्लवदेशको वे प्राप्त हुए ॥ ३३ ॥
[ पाण्डवकृत नेमिप्रभु-स्तुति ] जो त्रैलोक्यके द्वारा सेवनीय होनेसे छत्रत्रयसे-तीन छत्रोंसे सुशोभित हैं, शोकका भय नष्ट करनेसे अशोकवृक्षसे जो अंकित हुए हैं, चौसठ चंचल सुंदर चामर जिनपर दुरे जा रहे हैं, त्रैलोक्यके मानो मस्तकपर जो विराज रहे हैं ऐसे सिंहासनका आश्रय लिये हुए, सुगंधित और दिव्य देहसे युक्त होनेसे जो पुष्पवृष्टिसे शोभित हुए हैं, कर्मशत्रुको जीत लेनेसे प्राप्त हुए दिव्य दुंदुभियोंसे जो उद्दीप्त हुए हैं, अठारह महाभाषाओंमें भाषण करनेरूप एक महाध्वनि जिनकी है, सूर्यकोटियोंसे उत्पन्न प्रकाशके समान चमकनेवाला जो भामण्डल उससे जो निर्मल दीखते हैं, जिनको सुर और असुर हमेशा सेवन करते हैं ऐसे नेमिजिनेश्वरको देखकर वे पाण्डव भक्तिसे पूजाओंके द्वारा पूजने लगे ॥ ३४-३८ ॥ पवित्र उत्तम
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