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द्वाविंशं पर्व
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केचिदेकादश स्थानान्केचिच्च श्रावकमतान् । जगृहुः संयमं चान्ये महाव्रतपुरःसरम् ॥७६ एवं स श्रेयसो दृष्टिं कुर्वनीवृति नीवृति । विजहार जिनो नेमिर्भव्यान्संबोधयन्परान् ॥७७ विहृत्य निखिलान्देशान्पुनः प्राप जिनेश्वरः । ऊर्जयन्ताभिधं शैलमूजस्वी चाजवान्वितः ॥ जिनं तत्रागतं वीक्ष्य यादवाः सोद्यमा मुदा । वन्दनार्थे समाजग्मुर्बलदेवपुरःसराः ॥ ७९ स्तुत्वा नत्वा जिनं स्थित्वा श्रुत्वा धर्म सुमानसाः । सीरपाणिः पुनः प्राह जिनं नत्वाच्युतान्वितः ॥ ८०
भगवन्वासुदेवस्य प्राज्यं राज्यं महोदयम् । वर्तिष्यते कियत्कालं द्वारावत्याः पुनः स्थितिः ॥ जिनः प्राह पुनर्भद्र पूर्नश्येन्मद्यहेतुतः । नृप द्वादशवर्षान्ते द्वीपायननिमित्ततः ॥८२ विष्णोर्जरत्कुमारेण भवेद्गत्यन्तरे गतिः । सद्यः संयममासाद्य दूरं द्वीपायनोऽप्यगात् ॥८३ तथा जरत्कुमारश्च कौशाम्बीवनमाश्रयत् । ततः पुनर्जगामाशु जिनो देशान्तरं खलु ॥ ८४ तावत्काले गते चायान्मुनिद्वपायनः क्रुधा । ददाह द्वारिकां सर्वो नान्यथा जिनभाषितम् ।।
स्वरूप और श्रावकोंके धर्मका स्वरूप, ऐसा शुभकल्याणका स्वरूप सुनकर कई जीवोंने सम्यग्दर्शन धारण किया, और सर्वप्रकारके संसारोंका कारण ऐसे मिथ्यात्वमलका व्याग किया। कई जीवोंने दर्शनिक, प्रतिकादिक ग्यारह प्रतिमाओंको धारण किया। कई जीवने श्रावकोंके व्रत धारण किये। कई जीवोंने अर्थात् पुरुषोंने महात्रा मुख्य जिसमें हैं ऐसा संयम धारण किया। इस प्रकारसे उत्तम भव्योंको उपदेश देनेवाले नेमितीर्थकर प्रत्येक देशमें धर्मकी वृष्टि करते हुए बिहार करने लगे ॥६७ -७७॥ अनंतबलधारक आर्जवयुक्त - कपटरहित नेमिजिनेश्वरने अनेक देशोंमें बिहार किया और वे ऊर्जयन्तपर्वतपर आये ॥ ७८ ॥ प्रभु ऊर्जयन्तपर्वतपर आये हैं ऐसा देखकर बलभद्रं जिनमें प्रमुख हैं ऐसे उद्यमशील यादव आनंदसे वंदन करनेके लिये आये । उत्तम मनवाले यादवोंने जिनेश्वरकी स्तुति की, उनको नमस्कार किया, सभामें बैठकर धर्मश्रवण किया। श्रीकृष्णके साथ जिनेश्वरको वंदन करके बलभद्र ने ऐसे प्रश्न पूछे - "हे भगवन्, वासुदेवका महावैभवयुक्त उत्तम राज्य कितने कालतक रहेगा ? तथा द्वारावती नगरीकी पुनः स्थिति कितने कालतक रहेगी ? 99 इन प्रश्नोंका उत्तर भगवानने ऐसा दिया - हे भद्र, हे राजन्, मद्यके हेतुसे यह नगरी बारह वर्ष समाप्त होने से द्वीपायन के निमित्तसे नष्ट होगी । विष्णुका जरत्कुमारके निमित्तसे गत्यन्तरमें- नरकगतिमें गमन होगा। यह सुनकर द्वीपायन दीक्षा लेकर तत्काल वहांसे दूर गया। वैसेही जरत्कुमारने भी कौशाम्बीवनका आश्रय लिया । तदनंतर पुनः जिनेश्वर देशान्तरको शीघ्र गये । बारह वर्षका काल समाप्त होनेपर द्वीपायन मुनि क्रोधसे द्वारिका नगरको आये और उन्होने संपूर्ण द्वारिकानगरीको जलाया ।
१ स ज्ञात्वा
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