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विंशतितमं पर्व
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श्रुत्वेति चापमादाय कौरवो योद्धुमुद्यतः । पार्थं यमपथं तूर्ण दास्यामीति मुदा वदन् ।। १५८ दुर्योधनेन्द्रपुत्रौ च युद्धं कर्तुं समुद्यतौ । रणलक्ष्म्या लक्षिताङ्गौ वीरवर्गसमाश्रितौ ॥१५९ दुर्योधनेन संछिन्नाः पार्थस्य विशिखाः खलु । जहास कौरवः किं भो गाण्डीवेन तवाधुना ।। हसित्वाथ हरिः प्राह श्रान्तः किं तिष्ठसेऽधुना । पार्थः प्रोवाच वैकुण्ठ गहनं मे न किंचन ॥ अरीन्हत्वा प्रपन्नोऽहं खेदं तेन स्थिरं स्थितः । निराकरोमि सच्छत्रून् मम पश्य पराक्रमम्॥ जित्वाथ कौरवं तूर्ण ग्रहीष्यामि वरं यशः । भणित्वैवं पृथुः पार्थः शरैर्विव्याध कौरवम् ॥ निजसैन्येन संभग्नः कौरवः कुरवश्रितः । तावद्दध्मौ हृषीकेशः शङ्ख वै पाञ्चजन्यकम् ।। तन्निनादं निशम्याशु जयार्द्रः कुपितः क्षणात् । अश्वत्थामा विनिस्थामा बभूव भयभीतधीः॥ समुद्धतं कुरोः सैन्यं पार्थेनैकेन संहृतं । कृष्णस्याग्रे पुनः सैन्यं किमुद्धरति तस्य वै ।। १६६. अतिरौद्रं रणं जातं रुण्डमुण्डान्विता धरा । तदासीच्छ्वासनिर्मुक्ताः कुणपाः पत्रवत् स्थिताः ॥ पार्थः क्रुद्धस्तदा वक्ष्य जयार्द्र जयवर्जितम् । उवाच मर्मसंभेदि वाक्यैः संभेदयंस्त्वरा ॥ १६८ रे जयार्द्र त्वया युद्धेऽभिमन्युस्तु विदारितः । त्वत्पराक्रममालां मां वीरविद्यां च दर्शय ॥ संरक्ष्य कौरवान्सर्वांस्त्वं दृष्टचिरकालतः । चेच्छक्तिरस्ति ते नूनं सज्जो भव रणाङ्गणे || १७०
' हे वैकुण्ठ मुझे इसमें कुछभी कठिनता अनुभवमें नहीं आती है ? शत्रुओंको मारकर मैं खिन्न हुआ हूं जिससे कुछ क्षणतक स्थिर बैठा हूं। अब शत्रुओंको नष्ट करूंगा, मेरा पराक्रम आप देख लीजिये । इस दुर्योधनको शीघ्र जीतकर मैं उत्तम यशको प्राप्त करूंगा । " ऐसा बोलकर महान् पराक्रमी अर्जुनने बाणोंसे दुर्योधनको विद्ध किया । तत्र अपने सैन्यके साथ आक्रंदन करता हुआ दुर्योधन वहांसे भाग गया ।। १५४ - १६३ ॥
[ अर्जुनने जयद्रथका वध किया ] तब हृषीकेशने - श्रीकृष्णने पांचजन्य नामक शंख फूंका शीघ्र उसका आवाज सुनकर जयाई तत्काल कुपित हुआ । अश्वत्थामाकी बुद्धि भयसे नष्ट हो गई, वह बलरहित हुआ । अतिशय उध्दत ऐसा कुरुराजाका सैन्य अकेले अर्जुनने नष्ट किया। फिर कृष्णके आगे उस कौरवका सैन्य कैसा बचकर रहेगा ! उस समय अतिभयंकर युद्ध हुआ । सम्पूर्ण रणभूमि रुण्डोंसे और मुण्डोंसे व्याप्त हो गई । उस समय सर्व भूमि श्वासरहित हुई । वहां श्मशान की शांतता दीखने लगी । सर्वत्र प्रेत पेड के पत्तोंके समान पडे हुए थे || १६४ - १६७॥ उस समय जयरहित जया को देखकर अर्जुन क्रुध्द हुआ । और मर्मको छेदनेवाले वाक्योंसे वह त्वरासे जयाईको इस प्रकार बोलने लगा । हे जयाई तूने युद्ध में अभिमन्युको विदीर्ण किया । तेरी पराक्रमपंक्ति अर्थात् विशाल पराक्रम और वीर - विद्या मुझे दिखा दे । सर्व कौरवोंसे रक्षित होनेसे तू दीर्घकालके बाद देखा गया। यदि तुझमें शक्ति हो, तो तू निश्चयसे रणांगण में सज्ज हो । " ऐसे भाषण से संपूर्ण देवोंको आनंदित करते हुए अर्जुनने बाणसमूहके द्वारा उसके धनुष्य, ध्वज और घोटे छिन्न
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