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________________ ४२७ विंशतितम पर्व नरनारायणौ चेमौ कलिहेतू निराकृतौ । गदया सुखहेतू च स्यातां दुर्योधनस वै ॥१३७ चिन्तयित्वा गदा तेन मुक्ता विष्णोरुरःखले । सागता पुष्पदामत्वं तन्वती च सुगन्धताम् ।। अर्चयित्वा हरिं गत्वा पतिता वैरिमस्तके । शतायुधं जघानाशु गदा गर्वापहारिणी ॥१३९ तदा समुत्थितं सैन्यं कौरवाणां युयुत्सया । ताभ्यां शरैः समुच्छिनं विच्छिन्नसमवायिभिः॥ सोऽवादीत्पार्थ तृषिता न चलन्ति तुरङ्गमाः । अस्मिन्वत्मनि पादाभ्यामावाभ्यां चल्यतां लघु पदातीभूय कर्तव्यः संगरः शत्रुहानये । धनंजयो जगादेति समाकर्णय माधव ॥१४२ मम खण्डवने दचो देवैर्दिव्यशरो महान् । आनयामि प्रभावेन तस्य गङ्गाजलं महत् ।। भणित्वैवं विसासावाशुगं च समानयत् । गङ्गाजलं क्षणात्तत्र महाकल्लोलसंकुलम् ॥१४४ स्नापितास्तुरगास्तत्र प्रमोदं प्रापिता जलैः । तदा नभसि देवौघा जजल्पुः स्वल्पशब्दतः॥ पातालात्सलिलं येन समानीतं महीतले । तेन सत्रं समारब्धं तुमुलं मानवा जडाः ।।१४६ हरियर्योद्धं समुत्तस्थे पार्थोऽपि रथसंस्थितः । मुमोच लक्षविशिखान्संख्ये क्षेप्तुं विपक्षकान् ॥ तैः शरैनिखिला विद्धा गजवाजिपदातयः । रथास्तदाखिला नष्टा अनिष्टाः कौरवे बले ॥ पर वे दुर्योधन के लिये सुखके कारण होंगे । " ऐसा विचार करके उसने विष्णुके वक्षःस्थलपर गदा छोड दी वह पुष्पमालाके रूपकी बन गई और उसका सुगंध फैलने लगा। उसने हरिकी पूजा की और वह लौटकर वैरीके मस्तकपर-शतायुधके मस्तकपर पड गई। गर्वको हरण करनेवाली उस गदाने शतायुधको तत्काल मार दिया ॥१३४-१३९॥ उस समय कौरवोंकी सेना लडनेकी इच्छासे उठकर खडी हो गई। उन दोनोंने जिनका सामूहिक रूप टूटा है ऐसे शरोंसे उस सैन्यको तितर बितर कर दिया अर्थात् उस सैन्यपर उन दोनोंने क्रमसे बाण छोडकर उसको इधर उधर भगाया ॥१४०॥ [ अर्जुनने घोडोंको गंगाजल पिलाया ] कृष्णने अर्जुनसे कहा कि 'हे अर्जुन, प्यासे हुए घोडे इस मार्गमें नहीं चलेंगे, इसलिये अब हम दोनोंजने पैदलही जल्दी चलेंगे। अब हमको पैदल सैनिकका रूप धारण कर शत्रुका नाश करनेके लिये युद्ध करना होगा" तब धनंजयने कहा कि, “हे माधव मेरा भाषण सुनो। मुझे खाण्डववनमें देवोंने महान् दिव्यबाण दिया है उसके प्रभावसे मैं विपुल गंगाजल लाऊंगा " ऐसा बोलकर अर्जुनने उस दिव्यशरको छोडकर महातरंगोंसे व्याप्त ऐसा गंगाका पानी तत्काल लाया। उस पानी में उसने अपने रथके घोडे नहलाये और उनको आनंदित किया ॥१४१-१४५॥ उस समय देवसमूह आकाशमें स्वल्पशब्दोंसे बोलने लगे, कि जिसने पातालसे भूतलपर पानी लाया है उसके साथ हे जड मानव आप युद्ध करने लगे हैं ? ॥ १४६ ॥ हरि लडनेके लिये तयार हुआ और रयमें बैठा हुआ अर्जुन भी उद्युक्त हुआ। युद्धमें शत्रुओंको तितर बितर करनेके लिये उसने लक्ष बाण छोड दिये ॥ १४७ ॥ अर्जुनने उन बाणोंसे गज, घोडे और पैदल तथा अनिष्ट सब रथोंको नष्ट किया। तब दुर्योधनने कहा कि आप सब भागते क्यों हैं ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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