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एकोनविंशं पर्व भगवन्भवकान्तारे भ्रमता परमो वृषः । मया लब्धोऽधुना नैव करवाण्यहमत्र किम् ॥२६१ शरच्छिनः प्रविष्टोऽहं शरणं तव संसृतौ । लप्स्ये फलं सुखादीनां त्वत्प्रसादान्महामुने । हंसोज्वोचत्सुगाङ्गेय नम सिद्धान्सनातनान् । आराधय समाराध्यमाराधनचतुष्टयम् ॥२६३ दर्शनाराधनां विद्धि तत्त्वश्रद्धानलक्षणाम् । आराध्यते सुसम्यक्त्वं यत्र निश्चयतश्च ताम् ॥ भावानां यत्र विज्ञानं जिनोक्तानां सुनिश्चयात् । सा ज्ञानाराधना प्रोक्ता निश्चयेन चिदात्मनः। चर्यते चरणं यत्र निवृत्तिः पापकर्मणः । पुनः प्रवृत्तिश्चिद्रपे चारित्राराधना मता ॥२६६ यत्तपस्तप्यते द्वेधा श्रीयते संयमो द्विधा । तपआराधना प्रोक्ता निश्चयव्यवहारगा ॥२६७ आराधनाविधिं प्रोच्य गतौ चारणसन्मुनी । दधावाराधनां धीमान्गाङ्गेयो गुणसंगतः ॥२६८ सल्लेखनां विधत्ते स्म चतुर्धाहारदेहयोः । दर्शने चरणे ज्ञाने दत्त्वा चित्तमनारतम् ।।२६९ क्षमाप्य सकलाञ्जीवान्क्षान्त्वा सत्क्षमया युतः । जपन्पश्चनमस्कारान्स तत्याज तनुं तराम् ॥ स पश्चममहानाके सुरोऽभूनामनि । यत्र ब्रह्मोद्भवं सौख्यं भुञ्जते भविनः सदा ॥२७१
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बोलने लगे ॥२५९-२६०॥ “ हे भगवन् , इस संसार-बनमें भ्रमण करनेवाले मुझे उत्तम धर्म नहीं मिला, बोलो अब मैं यहां क्या कार्य करूं ? बाणोंसे विद्ध हुआ मैं आपके शरणमें आया हूं । हे महामुने, इस संसारमें आपकी कृपासे सुखादिकोंका फल मुझे प्राप्त होगा ॥ २६१-२६२ ॥ हंस नामक चारण मुनि बोले- हे गाङ्गेय,तू सनातन सिद्धोंको नमस्कार कर और सम्यग्दर्शन आराधना,सम्यग्ज्ञानाराधना,चारित्राराधना और तप आराधना ये चार आराधनायें आराधने योग्य हैं इनकी आराधना कर । तत्त्व-श्रद्धान-जीवादिक तत्त्वोंपर और उनके प्रतिपादक जिनेश्वर, निग्रंथ गुरु और जिनशास्त्र इनक ऊपर श्रद्धान करना दर्शनाराधना है । जहां निर्दोष सम्यग्दर्शन निश्चयसे आराधा जाता है वह दर्शनाराधना है। जिनश्वरने कहे हुए जीवादितत्त्वोंको निश्चयसे जानना ज्ञानाराधना कही है। तथा आत्माका आत्मामें चरण होना-स्थिर होना निश्चयसे सम्यक्चारित्राराधना है। जिसमें पापोंसे निवृत्ति होकर अपने चैतन्यरूपम प्रवृत्ति होना सम्यक्चारित्राराधना है । जिसमें दो तरहका तप किया जाता है, जिसमें दो प्रकारोंका संयम-इंद्रियसंयम और प्राणिसंयम पाला जाता है वह निश्चय-व्यवहारात्मक तप-आराधना है।” इस प्रकारसे आराधना-विधिका उपदेश देकर वे चारण मुनि आकाशमार्गसे चले गये । गुणसंयुक्त विद्वान् गांगेयने चार आराधनाओंको धारण किया ॥ २६३-२६८ ।। भीष्माचार्यने चार प्रकारके आहारका त्याग और देहकी ममताका त्याग कर जिसको सल्लेखना कहते हैं, वह धारण की । उन्होंने दर्शन, चारित्र और ज्ञानमें नित्य अपना मन लगाया । संपूर्ण जीवोंकी क्षमा याचना करके उनकोभी उन्होंने क्षमागुणके द्वारा क्षमा की। पंचनमस्कार मंत्रको जपते हुए उन्होंने शरीरका त्याग किया। उससे वे पांचवे ब्रह्म-स्वर्गमें देव हुए। जहां उत्पन्न होनेवाले देव हमेशा ब्रह्मचर्यसे उत्पन्न होनेवाले सुखोंका अनुभव लेते रहते हैं
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