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एकोनविंशं पर्व प्रेषयामि जरासंधसाधं युष्मान्यमालयम् । स श्रुत्वेति त्वरा गत्वा धार्तराष्ट्रान्न्यवेदयत् ॥ तत्सर्व वीक्षित बध्न इत्यगादुदयाचलम् । प्राहातोधानि संनेदुर्भटानामुद्यमाय च ॥१७१ - रथस्थः पार्थ इत्याख्यत्सारथे सरथान्नृपान् । अहिं ब्रूते स्म सोऽश्वादिकेतुकीर्तनपूर्वकम् ॥ एष तालध्वजो गङ्गासुतः श्यामतुरंगमः । शोणसप्तिरयं द्रोणो बली बार्णनिकेतनः ॥१७३ सैप दुर्योधनो धन्वी नीलाश्वो नागकेतनः । दुःशासनोऽयमानायकेतुः पीततुरङ्गमः ॥१७४ द्रोणसूनुः कियाहाश्वोऽश्वत्थामायं हरिध्वजः । शल्यः सीताध्वजः सोऽयमश्वैर्बन्धूकबन्धुरैः॥ कोलकेतुरयं भाति लोहिताश्वो जयद्रथः । एवं ज्ञात्वान्यभूपालानुत्तस्थे योद्धमर्जुनः ॥१७६ तदा गजघटालना भटाः सुघटनावहाः । संजाघटन्ति संग्रामं स्वामिकार्यपरायणाः ॥१७७ गाङ्गेयः सुगुणं चापे धृत्वा दधाव धीरधीः । अभिमन्युमभिप्रेत्याभिमानरसमुद्वहन् ॥१७८ गाङ्गेयस्य सुबाणेन स चिच्छेद महाध्वजम् । प्रथमं कौरवाणां हि सुमहत्त्वमिवोन्नतम् ॥१७९
शीघ्र उतावला हुआ है । उसको मैं जरासंधके साथ यमालयको भेज दूंगा।" ऐसा भाषण सुनकर उस दूतने त्वरासे जाकर कौरवोंको कह दिया ॥ १६७-१७० ॥ होनेवाला सर्व व्यापार देखनेके लिये सूर्य पुनः उदयाचलपर आया । वीरोंको उद्यमयुक्त करनेके लिये प्रातःकालके मंगल वाद्य बजने लगे ॥ १७१ ॥ रथमें बैठे हुए अर्जुनने कहा, कि हे सारथे, तू रथयुक्त राजाओंका वर्णन कर । तब सारथीने अश्व, ध्वज इत्यादिकोंके स्वरूप वर्णनपूर्वक राजाओंका वर्णन किया । वह इस प्रकारका था-तालवृक्ष जिसके ध्वजका चिह्न है ऐसे भीष्माचार्यका रथ काले घोडेका है। ये बलवान् द्रोणाचार्य लाल घोडेवाले रथमें आरुढ हुए हैं तथा इनका ध्वज कलश चिह्नसे युक्त है। यह वह दुर्योधन है जिसके अश्व नीले हैं और ध्वज सर्पचिहसे युक्त है। इस दुःशासनका ध्वज जालचिह्नसे युक्त है और इसके घोडे पीले रंगके हैं। यह द्रोणपुत्र अश्वत्थामा है,इसके रथके घोडे शुभ्र हैं
और इसका ध्वज वानर चिहका है। यह शल्यराजा सीता ध्वजवाला है अर्थात् हलकी लकीरें इसके ध्वजपर हैं।और इसके रथके घोडे बन्धूकपुष्पके समान सुंदर अर्थात् लाल रंगके हैं। यह जयद्रथ राजा सुअरकी ध्वजा धारण करता है और इसके रथके घोडे लाल रंगके हैं । इसप्रकारसे राजाओंके चिह्न जानकर अर्जुन युद्धके लिये उद्यक्त हुआ । उससमय अपने स्वामीके कार्यमें तत्पर रहनेवाले हाथ के समूह युद्धमें संलग्न हुए । योद्धाभी उत्तम रचनावाले थे वे सब संग्राममें आये ॥ १७२-१७७ ॥ अभिमानरसको धारण करनेवाले धीर बुद्धिमान् गांगेय-भीष्माचार्य उत्तम डोरीसे युक्त धनुष्यको धारण कर अभिमन्यु के प्रति दौडकर आये । अभिमन्युने गांगेयका महाध्वज अपने उत्तम बाणसे तोड डाला वह महाध्वज कौरवोंका मानो प्राथमिक उन्नत महत्त्व था । दस बाणोंसे भीष्माचार्यने अभिमन्युका ध्वज छिन्न
"प वार्णनिकेतनः, स ब बली कलशकेतनः ।
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