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________________ ३९० पाण्डवपुराणम् अथ दायादसंदोहक्रियाशङ्काविरक्तधीः । संसारासुखसंभारभङ्गुरो विदुरोऽभवत् ॥२ स वैराग्यभराक्रान्तस्वान्तवृत्तिरचिन्तयत् । धिक् संपदः प्रभुत्वं धिक् धिक् च वैषयिकं सुखम् ।। यत्कृते पितरं पुत्रः पिता पुत्रमपि क्वचित् । सुहृच्च सुहृदं बन्धुर्बान्धवं च जिघांसति ॥४ एतांश्च कर्मचाण्डालसंश्लेषमलिनान्कुरून् । न खलु द्रष्टुमीशिष्ये म्रियमाणान्रणाङ्गणे ॥५ एवमालोच्य विज्ञानी विदुरः कौरवान्नृपान् । प्रकथ्य विपिनं गत्वानंसीद्विपुलमानसम् ॥६ विश्वकीर्ति नतः श्रुत्वा वृषं संयमिनो वृषम् । जग्राहोपधिनिर्मुक्तः संचरन्परमं तपः॥७ अथैकदा जनः कश्चिद्विपश्चिद्राजमन्दिरम् । पुरं प्राप्य सुरत्नौधैः प्राभृतीकृत्य भूमिपम् ।।८ नतः पृष्टो नरेन्द्रेण कस्मादायातवानिति । स जगौ द्वारिकातोऽहं प्राप्तोत्र त्वद्दिदृक्षया ॥९ तत्र कोऽस्ति महीपालो जरासंधेन भूभुजा । पृष्टोऽवोचत्स वैकुण्ठो नेमिना तत्र भूपतिः ॥ तत्रस्थान्यादवाश्रुत्वा जरासंधो महाक्रुधा । चचालाकालकल्पान्तचलितात्मबलाम्बुधिः ॥ निर्हेतुसमरप्रीतो माधवं नारदोऽब्रवीत् । जरासंधमहाक्षोभं वैरिविध्वंसकारकम् ॥१२ [विदुरराजाने जिनदीक्षा धारण की ] इसके अनंतर दायाद-भाईबन्दोंके समूहके दुराचारोंके भयसे जिनकी बुद्धि विरक्त हुई है ऐसे विदुरराजा सांसारिक सुखसमूहसे भागनेवाले हुए अर्थात् उन्होंने सांसारिक-सुखोंका त्याग किया। वैराग्यभावसे व्याप्त हुआ है मनोव्यापार जिनका ऐसे विदुर राजाने ऐसा विचार किया- " संपत्ति, स्वामित्व और विषय-सुखको धिक्कार हो। इन संपत्ति आदिके लिये पुत्र पिताको, कचित् पिताभी पुत्रको, मित्र मित्रको और बंधु बांधवको मारना चाहते हैं " ॥ २-४ ॥ “ अशुभ कर्मरूपी चाण्डालके संपर्कसे मलिन हुए, तथा रणाङ्गणमें मरनेवाले कौरवोंको, मैं निश्चयसे नहीं देखना चाहता हूं।" ऐसा विचार कर ज्ञानी विदुरराजाने कौरवोंको अपना दीक्षा लेनेका विचार कहकर तथा अरण्यमें जाकर विपुलमनवाले अर्थात् सर्व प्राणिओंका हित चाहनेवाले विश्वकीर्तिनामक मुनीश्वरको नमस्कार किया। उनसे धर्मका स्वरूप पूछकर बाह्याभ्यंतर परिग्रहोंसे रहित होकर मुनियोंका धर्म ग्रहण किया और तपश्चरण करते हुए वे विहार करने लगे ॥ ५-७ ॥ किसी समय एक विद्वान् राजगृहनगरके राजमंदिरमें उत्तम रत्नोंके साथ आया और उसने जरासंध राजाके आगे उन रत्नोंको भेट कर नमस्कार किया। आप कहांसे आगये हैं ऐसा राजाने प्रश्न पूछा तब “ आपको देखनेके लिये मैं द्वारिकासे यहां आया हूं" ऐसा उसने उत्तर दिया। राजाने पूछा, कि वहां कौन राजा रहता है ? तब उस विद्वानने उत्तर दिया कि “ द्वारिकामें श्रीनेमिप्रभुके साथ वैकुण्ठराजा-कृष्णराजा राज्य करता है।" द्वारिकामें यादव हैं ऐसा सुनकर मानो अकालमें प्रगट हुए कल्पान्तकालके समुद्र समान जिसका सेना-समुद्र क्षुब्ध हुआ है ऐसा जरासंध राजा क्रोधसे प्रयाणके लिये उद्युक्त हुआ ॥ ८-११ ॥ [ कृष्णका युद्धके लिये उद्यम ] कारणके बिनाही युद्ध-प्रीति जिसको है, ऐसे नारदने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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