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सीता सुरैः सदा पूज्या जाता मन्दोदरी तथा । शीलान्मदनमञ्जूषा जुष्टा योग्यगुणैरभूत् ।। शीलेन शोमना नार्यः शीलेन सुगुणाः सदा। शीलन संपदः सर्वाः शीलतो नापरं शुभम् ।। पाकशासनिरुत्तस्थे केसरीव क्रुधा तदा । ज्येष्ठेन वारितस्तावद्घतान्दश विलम्बय ॥२६४ रणं मा कुरु पार्थेश यत्तत्किचिद्भविष्यति । दशघस्रात्पुनस्तावनिशा जाता दिनात्ययात् ॥ विपुलोदरपार्श्वे सा गत्वा नेत्राश्रुपूरिता। वक्रमाच्छाद्य मन्दाक्षखिन्नाचख्याविदं वचः॥ जीवद्भिमें भवद्भिः किं कीचको नीचमानसः । आपादयति संपाद्यां दुःखावस्थामिमां यदि। भीमोऽभाणीत्तदा श्रुत्वा गजशुण्डामहाभुजः । भण भ्रातृप्रिये दुःखं तेन किं कृतमुत्कटम्॥ पराभूय च तं येन प्रापयिष्यामि पञ्चताम् । न स्थास्यामि नृपेणैव वारितोऽपि कदाचन ।। पाञ्चाली प्राह भीमेश त्वयि जीवति को नरः। करोति मम वै दुःखं पञ्चाननसमप्रमे।।२७० अनेन कीचकेनाहं हन्त हस्ते धृता मम । परा भीतिर्भवेद्भव्य लाव्यमेतन्ममासुखम् ॥२७१ पराभवो ममेत्येवं भवतीश्वर दुःखकृत् । तत्करस्पर्शतोऽद्याजतेऽङ्ग मे विलोकय ॥२७२ तन्निशम्य मरुत्पुत्रो बमाण भयवर्जितः। दावानल इव क्रुद्धस्तं हन्तुं विहितोधमः ॥२७३
२६३ ॥ कीचकके दुराचरणसे अर्जुनको बड़ा क्रोध आया वह उस समय सिंहके समान ऊठ खडा हो गया। परंतु ज्येष्ठ युधिष्ठिरने रोका, शांत हो जावो, दस दिनतक मार्गप्रतीक्षा करो। हे अर्जुन, तुम युद्ध मत करो दस दिनोंके अनंतर जो होनेवाला है वह होगा। दस दिनोंके अनंतर सूर्यास्त हो गया रात्रीका प्रारंभ हुआ ॥ २६४-२६५ ॥
[द्रौपदीवेषी भीमसे कीचकविनाश ] भीमके पास नेत्रजलसे भरी हुई द्रौपदी जाकर लज्जासे खिन्न होकर उसने अपना मुख ढक लिया और इसप्रकार वह कहने लगी। “ यदि नीचहृदयी कीचक इस तरहकी दुःखावस्था मेरी करेगा तो आप लोगोंके जीनेसे मुझे क्या फल मिलेगा आपका जीवित रहना व्यर्थ है।" ॥२६६-२६७॥ द्रौपदीका भाषण सुनकर हाथीकी शुण्डासमान बडे बाहुवाला भीम बोला कि “हे भाभी बोल, उस दुष्टने तुझे कौनसा तीव्र दुःख दिया है ? मैं उसका पराभव कर उसको मार डालूंगा । यदि उस समय राजा युधिष्ठिरने मुझे इस कार्यसे निवारण किया तो भी मैं नहीं रहूंगा अर्थात् उसका वचन मैं कदापि नहीं सुनूंगा" ||२६८-२६९॥ पांचालीने कहा कि “हे भीमेश, आप सिंहके समान कांतिमान्-तेजस्वी हैं, आपकी जीवनावस्थामें मुझे दुःखित करनेका किसे सामर्थ्य है ? खेद की बात है, कि इस कीचकने मुझे हाथमें पकडा अर्थात् मुझे अतिशय भय उत्पन्न हुआ। हे भव्य, मेरा यह दुःख आपके द्वारा अवश्य नष्ट हो जाना चाहिये। हे प्रभो, मेरा यह अपमान इस प्रकारसे दुःखदायक हुआ है। आज मेरा अङ्ग उसके हस्तस्पर्शसे अभीतक कँप रहा है, आप देख लें" ॥ २७०-२७२ ॥ द्रौपदीका वचन सुनकर निर्भय भीम दावानलके समान क्रुद्ध हुआ और कीचकको मारने के लिये उद्युक्त हुआ। हे सुन्दरी,
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