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________________ सप्तदशं गर्व ३५६ दुःखेन खिनचेताः स मूर्छया पतितो भुवि । कथं कथमपि प्राप्तचेतनो विललाप च ॥१९९ मो प्रातरः पिपन्तोऽम्भो मूञ्छिताः किम निषितम् । वजस्तम्भे कथं लमो घुणो निघृणधुर्धरः॥ २०० विलासमेष्यति क्रुद्धः पूर्णराज्यस्य कौरवः । अद्य पाण्डववंशस्य स्वयं जातः क्षयः क्षणात् ॥ बद्धोऽपि कौरवः कुद्धः स्वयोधैर्युधि बन्धुरैः। मया मारयितुं नैव दत्तो दैववशेन च ॥२०२ तथापि बान्धवा मेऽध हता दैवेन दुर्दशा । दैवस्याथो अदैवत्वकरणे मम शक्तता ॥२.३ . मारयन्तो महामत्ताः कौरवान्मम सेवकाः । रक्षिता मयका धात्रेग्विधं विहितं भुवि ॥२०४ पापठीति स्म भूपीठे कोदण्डेन हता मया । बान्धवाश्चण्डकोदण्डा धर्मदेवस्तु इत्यलम् ॥२०५ धर्मपुत्र समर्थोऽस्यवगाह्य यदि मत्सरः । पयः पिब खशक्त्या किं वृथा गर्जसि भेकवत् ।। इत्याकये प्रबुद्धात्मा धर्मपुत्रः समर्थधीः । सरः प्रविश्य पानीयं पपौ पूतमनाः स्वयम् ॥ तत्क्षणं स पपाताशु भुक्तहालाहलो यथा । धिक्चेष्टितं विधेर्येन तेषामीग्विधं कृतम् ॥२०८ हुए गिरे हुए भाईयोंको देखने लगा। दुःखसे खिन्नचित्त होकर मूछ से वह जमीनपर गिर पड़ा। और बडे कष्टसे चेतना प्राप्त होनेपर वह शोक करने लगा ॥ १९३-१९९ ॥ “ भो भाईयों, क्या पानी पीकर तुम लोग निश्चित मूञ्छित हुए हो? दुष्ट और घुर घुर शब्द करनेवाला घुन नामक कीडा इस वजस्तंभमें कैसा लग गया। अब क्रुद्ध कौरव दुर्योधन पूर्ण राज्यके विलासको प्राप्त होगा। आज पाण्डववंशका क्षय एक क्षणमें स्वयंही हुआ है। कुपित हुए हमारे शूर योद्धाओंने युद्धमें बांधा हुआ भी कौरव दैववश होनेसे मैंने उसे मारने नहीं दिया था।" ॥ २००-२०२ ।। तथापि दुष्ट दृष्टिके दैवने आज मेरे बांधवोंका घात किया है। उस दैवको अदैव करनेकी मुझमें शक्ति है। जो मेरे महामत्त सेवक कौरवोंको मारनेके लिये उद्युक्त हुए थे उनको मैंने इस कार्यसे बचाया है अर्थात् गंधर्वादिकोंको मैंने दुर्योधनको छोडो, मत मारो ऐसा कहकर दुर्योधनको बंधनमुक्त किया था, परंतु इसका कुछ उपयोग नहीं हुआ और दुर्दैवने मेरे बंधुओंको मार डाला। " २०३-२०४॥ उस समय धर्मदेवने ऐसा पुनः पुनः कहा- “धर्मराज, मैंने इस भूतलपर धनुष्यके द्वारा प्रचण्ड धनुष्यके धारक तेरे भाईओंको मारा है अब इतना खुलासा पूर्ण हुआ है। हे धर्मपुत्र, यदि तू समर्थ है तो मेरे सरोवरमें प्रवेश करके उसका पानी अपने सामर्थ्य से प्राशन कर । व्यर्थ मेंढकके समान क्यों टर टर शब्द करता है ? " ऐसा भाषण सुनकर विशेषज्ञ, समर्थ बुद्धिवाले धर्मराजने सरोवरमें प्रवेश करके स्वयं पवित्र मनसे पानी पिया। उससे जिसने हालाहल भक्षण किया है ऐसे मनुष्यके समान तत्काल भूमिपर गिर पडा। दैवके चेष्टितको अर्थात् दैवके कार्यको धिक्कार हों; क्यों कि उन पाण्डवोंका इस दैवने ऐसा विनाश किया ॥ २०५-२०८ ॥ [कृत्याने कनकध्वजराजाको मार दिया ] जप और मंत्रविधानसे कनकध्वजराजाको सातवे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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