________________
( ३६ )
कुमारों को मार डाला है, उसे मारनेके लिये कोई भी वीर समर्थ नहीं है । यह सुनकर द्रोणाचार्य बोले कि जो किसी एक रणशौण्ड सुभटके द्वारा नहीं मारा जा सकता है, वह भला किसके द्वारा मारा जा सकेगा ? अतः अनेक राजाओंको मिलाकर कल-कल करते हुए उसके धनुषको छेदकर मार डाला । इस प्रकारके द्रोणाचार्य के वचन [ २०, २५-२६ ] को सुनकर न्यायक्रमको छोड़ उन सभी ने मिलकर उसके ऊपर आक्रमण कर दिया । इसी समय जयार्द्रकुमारने महाबाणों से उसे अभित किया । वह भूमिपर गिर पड़ा। तत्र कर्णने उससे शीतल जल पीनेके लिये कहा । यह सुनकर अभिमन्यु ने कहा कि हे राजन् अब मैं जल न पीऊंगा, किन्तु उपषांसको स्वीकार कर परमेष्ठिस्मरणपूर्वक शरीरका त्याग करूंगा । इस प्रकारसे उसने काय और कषायकी सल्लेखना करके शरीरको छोड़ा और देवपर्याय प्राप्त की । अभिमन्युकी मृत्युसे यादवसेना में शोक छा गया । उस समय अर्जुनने सुभद्राको सान्त्वना देते हुए कहा कि अभिमन्युको मारनेवाले जया कुमारका यदि शिरच्छेद न करूं तो मैं अग्निमें प्रवेश करूंगी ।
१ अथ कर्णमुखा महारथास्ते मिलिता कैतवमेत्य यौगपद्यात् ।
सुरनायकपौत्रमेनमस्त्रैः स्वयशोभिः सह पातर्याबभूवुः । चम्पूभारत १०, ५१. अभिमन्युका यह वृत्तान्त हरिवंशपुराण में नहीं उपलब्ध होता ।
दे. प्र. पां. च. के अनुसार जब पाण्डवोंको द्रोणाचार्य द्वारा रचे जानेवाले चक्रव्यूहका समाचार गुप्तचरोंसे ज्ञात हुआ तब वे चक्रव्यूह के भेदनेका विचार करने लगे। उस समय अभिमन्युने कहा कि.. पहिले मैंने द्वारिकापुरीमें कृष्णकी समर में किसीके मुहसे चक्रव्यूह में प्रवेश करनेकी विधि तो सुनी थी, परन्तु उससे बाहिर निकलने की विधि नहीं सुनी। तब भीमने कहा कि फिर चिन्ताकी कोई बात नही है, अर्जुनके त्रैगर्त ( सुशर्मा आदि ) विजय में जानेपर भी हम चारोंजन चक्रव्यूहको भेद कर बाहिर निकलने का भी मार्ग खोज लेंगे। गुप्तचरोंसे सुने गये समाचार के अनुसार द्रोणाचार्यने युधिष्ठिरको ग्रहण करनेकी अभिलाषासे चक्रव्यूहकी रचना की । इधर पाण्डवोंने भी अभिमन्युके साथ द्रोणाचार्यको जीतकर दुर्भेद चक्रव्यूह भेद डाला । उस समय अकेले अभिमन्युने करोडों सुभटोंको मार गिराया । तब अभिमन्युको दुर्जय जानकर कौरवसेना सभी मुख्य सैनिकोंने मिलकर एक साथ उसके ऊपर आक्रमण कर दिया । इस अनेक सैनिकोंके शस्त्रोंसे अभिहत होकर अभिमन्यु पृथ्वीतलपर गिर पड़ा। तब दुःशासनपुत्र ने तलवार से उसका शिर काट डाला। तब दोनों पक्षोंके कृत्य को देखनेवाले देवने साधुवाद और हानाद किया ( १३, ३४४ - ३७५ ) । इधर त्रैगतको जीतकर जैसेही अर्जुन यहां आया वैसेही उसे सभी शोकसागर में मन दिखायी दिये । पश्चात् युधिष्ठिर से अभिमन्युके मरणको जानकर वह सुभद्रा के पास गया और उसे सान्त्वना दी। साथही उसने यह प्रतिज्ञाभी की यदि कल दिनके रहते तुम्हारे पुत्रके घातक जयद्रथको न मार डाला तो मैं अभिमें प्रवेश करूंगा (१३, ३७६-३८६ ) ।
इन्द्रात्मजस्तदनु बाहुमुदस्य कोपात्सिन्धूद्वहस्य समरे द्विषतां समक्षम् ।
त्यांश्व एव यदि तस्य शिरो न कुर्यो तस्यां विशेयमह मित्यकरोत् प्रतिज्ञाम् ॥ चम्पूभारत १०, ५७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org