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________________ (३५) तत्पश्चात् उस दूतने जरासंधके पास पहुंच कर उसे एकान्तमें समझाया । जरासंधने प्रसन्नतापूर्वक लोहजंधके वचनको मान लिया और छह मासके लिये सन्धि कर ली । दूतने वापिस द्वारिकापुरी पहुंचकर समुद्रविजयसे सब वृत्त कह दिया। इस प्रकार साम्यपूर्वक एक वर्ष बीत गया। तत्पश्चात् जरासंध सैन्यसे सुसज्जित हो युद्धके निमित्त कुरुक्षेत्र पहुंचा [ह. पु. ५०, ४९-६५)। दूतसे शत्रुका सब समाचार जानकर कृष्णने पांचजन्य शंखके शब्दसे युद्धकी सूचना देकर कुरुक्षेत्रकी ओर प्रस्थान किया। इस प्रकार कुरुक्षेत्रमें युद्धोन्मुख दोनों सेनाओंके उपस्थित होने पर जरासंधने अपने सैन्यमें चक्रव्यूहकी और कृष्णने गरुडव्यूहकी रचना की । बस फिर क्या था, दोनों ओरसे घनघोर युद्ध छिड़ गया । अनेक योद्धा सन्मुख उपस्थित शत्रुके प्रति अभिमानपूर्ण मर्मभेदी वाग्बाणोंका प्रयोग कर शस्त्रोंके आघातसे मरने-करने लगे । इस युद्ध में भीष्म पितामह और शिखण्डीने आपसमें बहुत आघात-प्रत्याघात किये । अन्तमें नौवें दिन पूर्वकृत प्रतिज्ञाके अनु. सार शिखण्डीने अनेक बाणोंकी वर्षा कर गांगेयके कवचको विद्ध कर दिया । तत्पश्चात् उसने तीक्ष्ण बाणके द्वारा उनके हृदयकोभी छेड दिया । वे पृथ्वीपर गिर पड़े । उन्होंने अपने मरणको निकट आया देख संन्यास ग्रहण कर लिया और धर्मध्यानपूर्वक प्राणोंका परित्याग कर पांचवें स्वर्गमें देवपर्याय प्राप्त की [१९-२७१] । - इस युद्ध में वीर अभिमन्युने अपूर्व कुशलता दिखाई । उसने अनेक योद्धाओंको धराशायी किया । उसके पराक्रमको देखकर कर्णने द्रोणाचार्यसे कहा कि अभिमन्युने लक्ष्मण आदि हजारों १ हरिवंशपुराण (५०, १०२-१३४) में इन दोनों व्यूहोंकी रचनाका क्रमभी बतलाया गया है । २ हरिवंशपुराणमें भीष्म पितामहके युद्ध में उपस्थित रहने और संन्यासमरणका उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता । दे. प्र. सूरिकृत पां. च. के अनुसार नौवें दिन भीष्मके द्वारा पाण्डवसेनाका संहार किये जानेपर युधिष्ठिरने श्रीकृष्णसे उसकी रक्षा कर उपाय पूछा । तब कृष्णने “स्त्रियां पूर्वस्त्रियां दीने भीते षण्ढे निरायुधे । यद्भीष्मस्य समीकेषु न पतन्ति पतत्रिणः ॥" (१३-१५०) इस आबालगोपाल प्रसिद्ध भीष्मके नियमका स्मरण कराकर द्रुपद राजाके षण्ढ पुत्र शिखण्डीको आगे करके पीछेसे तीक्ष्ण बाणों द्वारा अभिघात करनेका उपदेश दिया । प्रातःकालके होनेपर कृष्ण द्वारा बतलाये गये उपायका अनुसरण कर शिखण्डीको आगे करके भीम और अर्जुन आदिने भीष्मके ऊपर तीक्ष्ण बाणोंकी वर्षा की। इसी बीचमें "मा स्म विस्मर गाङ्गेय । गिरं गुरुसमीरिताम्" यह आकाशवाणी (१३-१९३) सुनी गई। तब दुर्योधन द्वारा इस सम्बन्धमें पूछे जानेपर भीष्मने कहा कि जब मैं अपने मातामह (नाना) के यहां रहता था तब एक समय उनके साथ मुनिचंद्र नामक मुनीन्द्रके पास वन्दनार्थ जानेपर जो उन्होंने मेरे सम्बन्धमें भविष्यवाणी की थी, उसीका यह आकाशवाणी स्मरण कराती है । तत्पश्चात् उक्त भविष्यवाणीकेही अनुसार भीष्मने दुर्योधनको संबोधित करके भद्रगुप्तसूरिके पास व्रतोंको ग्रहण कर लिया (१३, १२८-२७२)। मुनिचन्द्र मुनिकी भविष्यवाणीके अनुसार अभी भीष्मकी आयु एक वर्ष शेष थी (१३-२१२)। आयुके पूर्ण होनेपर वे अच्युत स्वर्गको प्राप्त हुए (१५, १२५) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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