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षोडशं पर्व इत्यं कृतेऽखिले लोकेऽपकीर्तिः कीर्तिता भवेत् । यशस्यं जायते लोके तथा कुरुत कौरवाः॥ इदं भ्रातृकलत्रं हि पवित्रं पतितां गतम् । खलीकारे कृते तस्य महती स्यादधोगतिः ॥१३१ तावता द्रौपदी क्षुण्णा रुदन्ती वाष्पलोचना । इयाय पाण्डवाभ्यणे दुःखिता दुर्दशां गता॥ बमाण भवतां यादृग्वर्तते सा पराभवः । ततोऽधिको ममाप्यासीन्मद्वेण्याकर्षणक्षणे ॥१३३ यदने मम शीर्षस्य वेणी नोद्धरति स्फुटम् । अन्यत्किं विपुलं वस्तु तेषामग्रे यमाग्रवत्॥१३४ हा शिखण्डधर प्राज्ञ पार्थपूर्वज पूर्वतः । इमं पराभवं कोष त्वां विना विनिवारयेत्।।१३५ पराभवभवं वाक्यं पाञ्चाल्या विपुलोदरः। श्रुत्वावादीन्महाक्रोधो घुर्घरखरघूर्णितः ॥१३६ स्वामिन्नध प्रकुर्वेऽहं क्षयं वैरिकुलस्य वै। पुनः पार्थः समुत्तस्थे द्रौपद्याश्च पराभवात् ॥१३७ तदा युधिष्ठिरोऽवोचन्महानाज्ञा न लक्षयेत् । क्षुब्धोऽपि मारुतौघेन मर्यादां किं सरित्पतिः इति यौधिष्ठिरं वाक्यमाकये पाण्डुनन्दनाः। गन्तुकामाः समुत्तस्थुमैदान्ध्यपरिवर्जिताः॥ विदुरस्य गृहे कुन्ती रुदन्ती विधुरात्मिकाम् । मातरं मोहयुक्तास्ते विमुच्य निर्गतास्ततः॥
देखकर भीष्माचार्य बड़े कौरवोंको कहने लगे कि हे “कौरवगण संसारमें आपको यदि रहना है तो ऐसा कार्य करना योग्य नहीं है। ऐसा कार्य करने पर आपकी जगतमें अपकीर्ति सर्वत्र जाहीर होगी। ऐसा कार्य आप करें जिससे यश बढेगा" ॥ १२९-१३० ॥ यह द्रौपदी आपके भाईकी पत्नी है, पुनः पवित्र और पतिव्रता है, सधवा है उसकी यदि तुम ऐसी विटंबना करोगे तो आपको बडी अधोगति प्राप्त होगी ॥१३१।। उस समय पीडित हुई, आँसुओंसे जिसकी आंखें भर गई है ऐसी, रुदन करनेवाली, द्रौपदी दुःखित और दुर्दशायुक्त होकर पाण्डवोंके पास गई। वह उनसे कहने लगी--" हे पाण्डवो, आपका जितना पराभव-अपमान हुआ है, मेरा उससे भी अधिक पराभव मेरी वेणी (गुथी हुई चोटी ) का आकर्षण करनेके समय हुआ है। जिसके आगे मेरे मस्तककी वेणी स्पष्ट खुली नहीं होती थी उनके आगे मैं और क्या बताऊं यमाग्रके समान (?) यह मेरा विशाल केशपाश पूर्ण खुल गया। हे शिखण्डधर- चोटी धारण करनेवाले भीम, आप पार्थपूर्वज हैं अर्थात् अर्जुनके पूर्व आपका जन्म होनेसे आप उसके बडे भाई हैं, आप चतुर है। आपके विना इस जगतमें मेरा पराभव दूसरा कौन दूर करनेवाला है ? " पांचालीके पराभवका वर्णन करनेवाला भाषण सुनकर विपुलोदर भीम घुर्धरस्वरसे युक्त होकर महाक्रोधसे बोला कि हे युधिष्ठिर प्रभो, आज मैं वैरि समूहका नाश कर डालूंगा ॥ १३२-१३७ ॥ पुनः द्रौपदीके पराभवसे अर्जुन भी उठ कर खडा हुआ तब युधिष्ठिर कहने लगे कि भाईयो, जो महापुरुष हैं वे आज्ञाका उल्लंघन नहीं करते हैं। वायुसमूहसे क्षुब्ध होनेपर भी समुद्र क्या अपनी मर्यादाका उल्लंघन करता है ? इस प्रकार युधिष्ठिरका वाक्य सुनकर मदान्धतासे रहित होकर जानेकी इच्छासे उठे ॥ १३८-१३९ ।। दुःखपीडित, रोनेवाली माता कुन्तीको मोहयुक्त वे पाण्डव विदुरके घरपर छोडकर वहांसे आगे चलने
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