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पाण्डवपुराणम्
तच्छ्रुत्वा स द्विजस्तस्मै कपिलाञ्छनलाञ्छितम् । द्विद्भिर्योद्धुमशक्यं च समदाद्रथमुत्तमम् ।। पुनर्विहस्य देवोऽस्मै द्विजवेषधरोऽप्यदात् । वह्निवारिभुजंगाख्यतार्क्ष्यमेघमरुच्छरान् ||७० गोविन्दाय पुनः सोदागदां तार्क्ष्यध्वजं रथम् । अन्यानि बहुरत्नानि नानाकार्यकराणि च ॥ लब्ध्वा पार्थ इमान्बाणांस्तत्र दावानलाभिधम् । मुमोच बाणमादाय वनज्वालनहेतवे ॥७२ देवोsवोचत्पुनर्यच्च यच्च तुभ्यं हि रोचते । तज्ज्वालय सुरेन्द्रो वा यमो न रक्षितुं क्षमः ॥७३ तावद्दावानलो लग्नो वनं दग्धुं समग्रतः । वनेचरगणं सर्व ज्वालयंस्त्रस्तमानसम् ॥७४ अग्निज्वाला गता व्योम्नि ज्वालयन्ती च पक्षिणः । फणिनः करिणः सर्वान्मृगेन्द्रान्मृगशावकान् ज्वालयामास स सर्वाञ्शाखिनस्तृणसंहतीः । बुभुक्षितो यमः क्रुद्धः किं नात्ति सुरमानवान् ।। सर्वेषां ज्वालनं वीक्ष्य तक्षको नागनिर्जरः । क्रुद्धो देवगणांस्तूर्णं स्माकारयति तत्क्षणम् ॥७७ देवौघाः क्रोधमापन्ना दधावुरिति वादिनः । तिष्ठ तिष्ठ महामर्त्य व यास्यस्मत्सुकोपतः ॥७८ ततस्तैर्निखिलं व्योम मेघमालाकुलं कृतम् । जगर्ज घनसंघातः कज्जलाभो महाध्वनिः ॥७९ गर्जन्तं तं तदा वीक्ष्य समर्थः स कपिध्वजः । जनार्दनं जगादेति विद्युद्वन्तं च दर्शयन् ||८०
युक्त उत्तम रथ दावानल ब्राह्मणने अर्जुनको दिया। फिर हँसकर ब्राह्मणवेषी देवने अर्जुनको अनि जल, सर्प, गरुड, मेघ, वायु इस नामके और अग्न्यादिक उत्पन्न करनेवाले बाण दिये । पुनः श्रीकृष्णको उसने गदा दी और गरुडध्वजवाला रथ दिया । अनेक कार्य करनेवाले दूसरे बहुत रत्न भी दिये ॥ ६९-७१ ॥ उपर्युक्त बाण प्राप्त करके वन जलानेके लिये दावानल नामका बाण लेकर उसे अर्जुनने वनपर छोड दिया । पुनः दावानल देवने अर्जुनको कहा कि 'जो जो वस्तु जलाना तुम्हें पसंद होगा उसे जला दो। उस वस्तुकी सुरेन्द्र अथवा यम भी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं है । ।। ७२-७३ ।। उस समय दावानल बाण संपूर्ण वनको तथा जिनका मन भयभीत हुआ है ऐसे संपूर्ण वनचर प्राणियोंको जलाने लगा। अग्निज्वाला आकाशमें गई और उसने सर्व पक्षी, सर्प, हाथी, सिंह, और हरिणोंके शिशु जलाये । वह अग्निज्वाला सर्व वृक्षोंको और तृणसमूहों को जलाने लगी। योग्यही है, कि भूखा और कुपित यम सुरोंको और मानवोंको क्यों नहीं खायेगा अर्थात् अवश्य भक्षण करेही गा ।। ७४-७६ || संपूर्ण त्रस - स्थावरादि वस्तु जलती हुई देखकर तक्षक नामक नागदेव क्रुद्ध होकर तत्काल सब देवोंको बुलाने लगा । सब देवसमूह अतिशय क्रुद्ध हुआ और हे महापुरुष हमारे कोपसे बचकर तू कहां जाता है, खडे हो जावो, स्थिर होवो, ऐसे बोलते हुए वे दौडने लगे ॥ ७७-७८ ॥ तदनंतर उन देवोंने संपूर्ण आकाश मेघसमूह से आच्छादित किया । कज्जलजैसे काले, महाध्वनि करनेवाले मेघसमूह गर्जना करने लगे । गर्जना करते हुए मेघसमूहको देखकर सामर्थ्यशाली वह अर्जुन मेघसमूहको दिखाता हुआ श्रीकृष्णको इस प्रकार से कहने लगा | हे मुरारे, इन देवसमूहको देखो देखो मैं इनको बाणोंके द्वारा
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