________________
पोडश पर्व
३२७ एकासक्ता विपुलमतयः पाण्डवास्ते कथं स्युदरिद्राणां भवति वनिता भिन्नभिन्ना सदैव ॥ २२६ पञ्चासक्ता कथमपि भवेद् द्रौपदी चेत्सतीत्वम् तस्याः स्यात्कि विमलमतयश्चेति चित्ते विचार्य । तां संशुद्धां सुधृतिधिषणाः साधयन्तां वदन्ति एवं तस्या निजमतरतास्ते व यास्यन्ति पापाः ॥ २२७ यः शीलं श्रुतिसातदं शिवकरं सत्सेव्यमाशंसितम् साद्भः संगसुधारसैकरसिकं संसारसारं सदा । . सत्कुर्वीत समाश्रयत्यसमकं सोऽशोकशङ्काशमम्
संवित्तिं च सुवृत्तमेव सकलं संसक्तसंगापहम् ॥ २२८ इति श्रीपाण्डवपुराणे भारतनाम्नि भट्टारकश्रीशुभचन्द्रप्रणीते ब्रह्मश्रीपालसाहाय्यसापेक्षे पार्थद्रौपदीविवाहपाण्डवहस्तिनागपुरसमागमवर्णनं नाम पञ्चदशं पर्व ॥ १५॥
। षोडशं पर्व । श्रेयोजिनं सदा श्रेयःश्रेयांस श्रेयसे श्रये । सश्रियं श्रितलोकानां श्रेयाकर्तारमुन्नतम् ॥१
( कुमतमें ) रत हैं वे पापी कहा जायेंगे, किस दुर्गतिमें जायेंगे हम नहीं कह सकते हैं ॥ २२७ ॥ ज्ञान और सुखको देनेवाला, मोक्षको प्रकट करनेवाला, सज्जनोंके द्वारा सेवनीय और सज्जनोंसे प्रशंसित, सज्जनोंकी संगतिरूपी अमृतरसका रसिक और हमेशा संसारमें सारभूत ऐसे शीलका जो पुरुष पूजा करता है, और उसका आश्रय लेता है, वह शोक और शंकासे रहित शमभावको प्राप्त होता है वह पुरुष इस शीलके आश्रयसे उत्तम स्वात्मानुभवको प्राप्त होता है,तथा जिसके ऊपर आसक्ति उत्पन्न होती हैं ऐसे परिग्रहका त्यागरूप जो उत्तम चारित्र उसे प्राप्त कर लेता है ॥२२८॥ ब्रह्म श्रीपालकी सहायता लेकर शुभचन्द्रभट्टारकजीने रचे हुए भारत नामक पाण्डवपुराणमें अर्जुन और द्रौपदीका विवाहका और हस्तिनापुरमें पाण्डवोंके प्रवेशका
वर्णन करनेवाला पंद्रहवा पर्व समाप्त हुआ ॥ १५॥
पर्व सोलहवां ] जो अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मीसे युक्त हैं अर्थात् अनन्त ज्ञानादि अन्तरंग लक्ष्मी और समवसरणकी शोभारूप बहिरंग लक्ष्मीसे युक्त हैं तथा आश्रितभव्योंका जो उत्कृष्ट हित करते हैं, जो श्रेयःश्रेयान् है अर्थात् तीर्थकरपुण्यसे सबसे श्रेष्ठ हैं ऐसे श्रेयान् जिनेश्वरका मैं कल्याणके लिये हमेशा आश्रय लेता हूं ॥१॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org