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महायुद्धका प्रारम्भ एक समय किसी विद्वान् पुरुषने राजगृह नगर पहुंच कर जरासंध राजाको उत्तम रत्न भेंट किये । राजाके पूछनेपर उसने बतलाया कि मैं द्वारिकापुरीसे आया हूं । वहां भगवान् नेमिनाथके साथ कृष्णका राज्य है । इस प्रकार उसके कथनसे द्वारिकामें यादवोंके स्थित होनेका समा. चार ज्ञातकर जरासंधको उनके ऊपर बहुत क्रोध हुआ। वह उनके ऊपर आक्रमण करनेके लिये तैयारी करने लगा। उधर कलहप्रिय नारदसे यह समाचार जानकर कृष्णने भगवान् नेमिसे अपने विजयके सम्बन्धमें पूछा । नेमीश्वरने मन्द हास्यपूर्वक 'ओम् ' कहकर इस युद्धमें प्राप्त होनेवाली विजयकी सूचना दी । इससे कृष्ण युद्धके लिये समुद्यत हो गये । उनके पक्षके अन्य सभी योद्धा युद्धकी तैयारी करने लगे। इधर जरासंधके द्वारा भेजे गये दूतोंसे युद्धके समाचारको जानकर कर्ण और दुर्योधन आदि सम्राट् अपनी अपनी सेनाओंके साथ आकर जरासंधकी सेनामें आ मिले। जरासंधने दूतद्वारा यादवोंको अपने सेवक हो जानेकी आज्ञा कराई । “ कृष्णको छोड़कर अन्य कोई सम्राट नहीं है, जिसकी हम सेवा कर सकें" ऐसा कहकर बलदेवने दूतको वापिस कर
१ हरिवंशपुराण (५०,१-४) के अनुसार जरासंध राजाके पास अमूल्य मणिराशियोंको विक्रयार्थ लेकर एक वणिक् पहुंचा था। उ. पु. ७१, ५२-६६. दे. प्र.पा. च. के अनुसार जरासंधको सोमक नामक दूत द्वारावती पहुंचा। उसने समुद्रविजयकी सभामें जाकर कहा कि 'हे राजन् ! तुम्हारे दो शिशुओंने (कृष्ण-बलदेव) स्वामी जरासंधके जामात कंसको मार डाला था। तब अतिशय क्रोधको प्राप्त होकर कालकुमारने यदुवंशको नष्ट करनेका प्रयत्न किया । परन्तु उसे मार्गमें चितासमूहोंके बीच रुदन करती हुई एक वृद्धा स्त्री दिखी । उससे ज्ञात हुआ कि कालकुमारके भयसे यादव इन चिताओंमें जल गये । इससे अनायासही अपना प्रयत्न सफल हुआ जानकर वह वापिस हो गया । इससे विधवा राजपुत्री जीवयशाको भी शान्त्वना प्राप्त हुई थी । परन्तु इस घटनाके बहुत समय पश्चात् कुछ व्यापारी रलकम्बल आदि वस्तुओंको लेकर मेरे नगरमें आये । उन्होंने जीवयशाको रत्नकम्बल दिखलाये । जीवयशाने जो उनका मूल्यांकन किया उससे असंतुष्ट होकर उन्होंने कहा कि इससे अठगुने मूल्यमें तो द्वारिकावासियोंने इन्हें आग्रहपूर्वक मांगा था । परन्तु अधिक मूल्यप्राप्तिकी इच्छासे हम इन वस्तुओंको यहां लाये हैं। व्यापारियोंसे द्वारिकापुरीका नाम सुनकर जोवयशाने इस नगरीकी स्थिति आदिके सम्बन्धमें पूछा । तब उत्तरमें जो उन्होंने द्वारिकापुरीकी स्थिति और उसमें निवास करनेवाले यादवोंकी अभिवृद्धिका वर्णन किया। उससे शत्रुओंको सुरक्षित जानकर जीवयशाको बहुत दुख हुआ । इसी कारण राजा जरासंधने मुझे यहां भेजकर अपने जामाताके घातक उन दोनों ग्वालबालकों को मांगा है। अतएव आप यदुवंशको सुरक्षित रखनेके लिये उन दोनों बालकोंको दीजिये ।" दूतके इन वचनोंको सुनकर समुद्रविजयने जरासंधकी पुत्रयाचनाको अयोग्य बताकर सोमक दूतको वापिस कर दिया (१२, ३३-१०६)।
२ उ. पु. ७१, ६७-७२. हरिवंशपुराणमें इस प्रकारका कथन नहीं पाया जाता । ३ ह. पु. ५०, ३३-३५.
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