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(३२) चले गये।
विदुरका दीक्षाग्रहण वहां पहुंचकर अर्जुनने कृष्णको दुर्योधन द्वारा किये गये दुर्व्यवहार । [लाक्षागृहदाहादि ] का स्मरण कराया। इससे क्रोधित हो कृष्णने पाण्डवोंके साथ विचार कर दुयाधनके पास दूत मेज दिया । उसने हस्तिनापुर जाकर दुर्योधनसे कहा कि 'हे राजन् ! पाण्डव अजेय हैं, व्यर्थ अपने वंशका नाश न कीजिये। उनके सहायक कृष्ण, विराट, द्रुपद और बलदेव आदि हैं। अतएव अभिमानको छोड़िये और पाण्डवोंके साथ सन्धि करके उन्ह आधा राज्य दे दीजिये' दूतके इन वाक्योंको सुनकर दुर्योधनने विदुरसे परमश किया। उन्होंने भी उसे धर्ममें बुद्धि करके पाण्डवोंको आधा राज्य देनेकी सम्मति दी। इससे दुर्योधनको क्रोधही हुआ । उसने दुष्ट वाक्य कहकर दूतको निकाल दिया । दूतने वापिस जाकर सब समाचार कह दिया । दूतसे समाचार पाकर नीतिमार्गपर चलनेवाले पाण्डव यादवोंके साथ कौरवोंपर आक्रमण करनेके लिये उद्यत हुए । दुर्योधनके इस दुर्व्यवहारके कारण विदुरका मन विरक्त हो गया। उन्होंने विश्वकीर्ति मुनिके पास जाकर मुनिधर्मको ग्रहण कर लिया।
१ हरिवंशपुराणके अनुसार गोधनके अपहरणसे जो विराट नगरमें युद्ध हुआ था उसमें विजयी होकर पाण्डव हस्तिनापुर चले गये और दुर्योधनसे सम्मत होकर वहां रहने लगे। परन्तु अभीभी दुर्योधन आदिके हृदयमें क्षोभ था । अतएव वे फिरसे सन्धिको दूषित करने के लिये उद्यत हुए। इससे क्रोधको प्राप्त हुए भाइयोंको पूर्ववत् शान्तकर युधिष्ठिर माता व भाइयोंके साथ दक्षिणकी ओर गये । उन्होंने विन्ध्याटवीके भीतर निज आश्रममें तपश्चरण करनेवाले विदुरके दर्शन कर उनकी स्तुति की । तत्पश्चात् वे (दे. प्र. पां. च. ११-१) में विराट नगरसे द्वारिकापुरी जानेका उल्लेख है । सब द्वारिकापुरीमें प्रविष्ट हुए (४७, १-१२)।
२ दे. प्र. पां. चरित्रके अनुसार कृष्णको दुर्योधनकृत अपराधोंकी स्मृति भीम और द्रौपदीने दिलायी थी। तब कृष्णने दुर्योधनके समीप द्रुपद राजाके पुरोहितको दूतकार्यके लिये भेजा था (११, १९-११३)। . ३ दे. प्र. पां. च. के अनुसार कृष्णके द्वारा भेजे गये दूतके वापिस आजानेपर धृतराष्ट्रने प्रतिदूत स्वरूप अपने सारथि संजयको युधिष्ठिरके पास भेजा । उन्होंने नम्रतापूर्ण उत्तर देकर उसे हस्तिनापुर वापिस भेज दिया । संजयने यहां आकर दुर्योधनको बहुत कुछ समझाया । परन्तु इससे दुर्योधनको क्रोधही उत्पन्न हुआ, इसी लिये उसने संजयको अपमानित भी किया। तत्पश्चात् धृतराष्ट्रने विदुरको बुलाकर उनसे कुलकल्याणके निमित्त सम्मति मांगी। तदनुसार विदुरने भी योग्य सम्मति देकर धृतराष्ट्रसे कहा कि आप अपने पुत्रोंको कदाग्रहसे रोकिये, तभी वंशकी रक्षा हो सकती है । इसी विचारसे धृतराष्ट्र और विदुर दोनोंने जाकर दुर्योधनको समझानेका प्रयत्न किया । किन्तु उसने अपने दुराग्रह को नहीं छोड़ा । इससे खिन्न होकर विदुरको विरक्ति हुई । इसी लिये उन्होंने उद्यान में विश्वकीर्ति मुनिके पास जाकर उनकी स्तुति की और उनसे सर्वसवाद्यनिवृत्ति ( महाव्रत ) को प्राप्त किया ( ११, ११४-२५०)। इस प्रकरणमें विदुरकी विरक्तिसे सम्बन्धित ४ श्लोक दोनों ग्रन्थों (पां. पु. १९, २-४ व ५ तथा दे. प्र. पां. च. ११, २२३-२२५ व २२९) में समान रूपसे पाये जाते हैं।
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