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पाण्डवपुराणम् ततः पाथः पृथुर्वाण गुणे संरोप्य विक्रमी । संभ्रमावधीद्राधानासामौक्तिकमुमतम् ॥१०९ समौक्तिक तदा भूमौ पतितं वीक्ष्य सायकम् । जहर्षुः पार्थिवाः सर्वे तद्गुणग्रहणोत्सुकाः ॥ यादवा मागधा भूपास्तं शशंसुर्द्विजोत्तमम् । द्रुपदः सात्मजश्चित्तं सोत्कण्ठोऽभूत्वमानसे ॥ ततो द्रुपदराजेन्द्रसुता पार्थस्य कन्धरे । सुलोचनाकराल्लात्वाक्षिपन्मालां मनोहराम् ॥११२ तदा दैववशान्माला वायुना चलिता चला । पञ्चानामपि पर्यङ्के विकीर्णा पार्श्ववर्तिनाम् ।। लोकोक्तिनिर्गता मौढ्यादियं कर्मविपाकतः । पञ्चानया वृता मां दुर्जनाश्चेत्यघोषयन् ॥ सार्जुनस्य समीपस्था साक्षालक्ष्मीरिवोर्जिता । पाकशासनपार्श्वस्था शचीव शुशुभे तराम् ॥ अर्जुनाज्ञां समासाद्योपकुन्ति द्रौपदी स्थिता । मेघालि संगता विद्युदिव रेजे मनोहरा ॥११६ तावदुर्योधनो दुष्टो मलीमसमुखो नृपान् । जगौ सर्वेषु भूपेषु कोऽधिकारोज ब्राह्मणे ॥११७ धार्तराष्ट्रैश्च संमन्त्र्य प्रेषितो द्रुपदं प्रति । दूतश्चन्द्राख्यया ख्यातः सुशिक्षितः सुलक्षणः॥११८
होनेसे रोने लगे, किंवा मरा हुआ भी अर्जुन आज यहां स्वयंवरसभामें उपस्थित हुआ है ऐसा समझ कर रोने लगे ॥१०८॥ तदनंतर महान् पराक्रमी पृथापुत्र अर्जुनने दोरीपर बाण चढाकर घुमती हुई राधाकी नाकका उन्नत, ऊंचा, अमूल्य मोती विद्ध किया, तब वह बाण मौक्तिकके साथ भूमिपर गिर गया। और सब राजा देखकर हर्षित हुए, उस ब्राह्मणके गुणग्रहणके लिये वे उत्सुक हुए ॥१०९-११० ॥ यादववंशीय राजा और मगधदेशके राजा उस श्रेष्ठ ब्राह्मणकी प्रशंसा करने लगे तथा अपने पुत्रोंके साथ द्रुपद राजाभी अपने मनमें आश्चर्यके साथ उत्कंठित हुआ। अर्थात् द्रौपदीका इसे वरना योग्यही है ऐसा अभिप्राय उसके मनमें उत्पन्न हुआ ॥ १११ ॥ .
[द्रौपदीके विषयमें लोकापवादका कारण ] तदनन्तर द्रुपदराजाकी कन्या द्रौपदीने सुलोचनाके हाथकी मनोहर माला लेकर अर्जुनके गलेमें डाल दी। तब वह चंचल माला वायुसे हिलकर दैवयोगसे पांचों पाण्डवोंकी गोदपर फैल गई। अर्थात् उस मणिमालाके मणि, माला टूट जानेसे बिखरकर पांचो पाण्डवोंकी गोदपर जा गिरे ॥ ११२-११३॥ उससमय इस द्रौपदीने पांच पुरुषोंको वर लिया ऐसी लोकोक्ति मूर्खतासे निकली और द्रौपदीके कर्मोदयसे दुर्जनोंने ऐसी कुत्सित घोषणा की। अर्जुनके समीप खडी हुई वह द्रौपदी वैभवसंपन्न लक्ष्मीके समान या इंद्रके समीप खडी हुई इंद्राणीके समान अतिशय शोभने लगी। इसक अनंतर अर्जुनकी आज्ञा पाकर कुन्तीके पास खडी हुई द्रौपदी मेघपंक्तिमें संगत हुई मनोहर विद्युत्-विजलीके समान शोभने लगी ॥ ११४-११६॥
[ दूतका भाषण ] जिसका मुख मलिन हुआ है, ऐसे दुष्ट दुर्योधनने कहा, कि “ सर्व राजगण यहां होते हुए इस ब्राह्मणको क्या अधिकार है, जो राधावेध करनेके लिये यहां आया है" ॥ ११७ ॥ धृतराष्ट्रके सब पुत्रोंने आपसमें विचारकर चन्द्र नामका प्रसिद्ध सुशिक्षित और
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