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________________ चतुर्दशं पर्व २९९ तेन वित्तेन ते भक्ता जिनचैत्यालयं मुदा । अकारयन्पुरे तत्र पाण्डवाः परमोदयाः ।। १४१ घनाघनस्तदा तत्र वर्षन् धारा धराधरान् । धरां च छादयामास पयः पूरैः सुखप्रदैः ॥ उष्णतापं निराकर्तु प्रोतो हि घनाघनः । स्ववैरिणं निराकर्तुं को नोदेति महान्नरः ॥ १४३ पन्थानं च समासाद्य जलं जलधरोऽमुचत् । सर्वलोकान्सुखीकर्तुमायात इव भूतले ।। १४४ वर्षाकालं समावीक्ष्य पाण्डवास्तत्र संस्थिताः । धर्मध्यानं प्रकुर्वन्त आचतुर्मासकं मुदा ॥ १४५ क्षणे क्षणे क्षणं क्षिप्रं कुर्वन्तो मेघकालजम् । स्वकारिते जिनेशस्य चैत्यवेश्मनि संस्थिताः ॥ प्रावृङ्कालं समाप्याशु ततस्ते पाण्डुनन्दनाः । कम्पयन्तो धरां पादैचेलुः कुन्त्या समन्विताः ॥ क्रमेण पावनीं प्रापुः ख्यातां चम्पापुरीं नृपाः । कर्णो यत्र महीनाथो राजते राजसिंहवत् ॥ कुम्भकारगृहे तत्र शुम्भत्कुम्भसुशोभिते । चक्रचक्रसमाक्रान्ते तस्थुस्ते पाण्डुनन्दनाः ॥ १४९ विनोदनोदितो भीमो भ्रामयंश्चक्रमुत्तमम् । तत्र द्रष्टुं मनः क्षिप्रं चक्रे स्थासादिकां क्रियाम् ॥ आस्फोटयत्स्फुटारम्भो राभस्येन स पावनिः । उदञ्चनमहाकुम्भस्थालीकरकसद्धटीः ॥ १५१ तत्प्रस्फोटनजं स्पष्टं स्फोटं प्रस्पष्टमानसा । कुन्ती श्रुत्वा प्रकोपेन भीमं भीत्या न्यवारयत् ॥ दिया। योग्यही है, कि भक्त क्या नहीं करते ? ॥ १३७ - १४० ॥ भक्त और परम उन्नतिवाले उन पाण्डवोंने उस नगर में आनंदसे उस धनसे जिन चैत्यालय निर्माण कराया ॥ १४१ ॥ उस समय मेघने खूब वर्षा की। उन्होंने सुख देनेवाले जलप्रवाहोंसे पृथ्वी और पर्वतको आच्छादित किया । ॥१४२॥ उष्णता होनेवाला संताप नष्ट करनेके लिये आकाशमें मेघ उत्पन्न होता है । योग्यही है कि, अपने शत्रुको नष्ट करनेके लिये कौन महापुरुष उत्पन्न नहीं होता है । अर्थात् वीर पुरुष शत्रुका नाश करनेके लिये सदैव प्रयत्नशील होते हैं । मार्गका आश्रय कर मेघने पानीकी वर्षा की। ऐसा दीखता था मानो सर्व लोगोंको सुखी करनेके लिये वह आया है । वर्षाकालको देखकर चार महिनेतक धर्मध्यान करनेवाले पाण्डव वहां आनंदसे रहने लगे । वे पाण्डव प्रत्येक पर्वतिथि के दिन वर्षाकालका उत्सव स्वनिर्मित जिनमंदिरमें करते हुए वहां ठहरे ॥१४३ - १४६॥ [ कुम्हारके घर में पाण्डव निवास ] वर्षाकाल समाप्त होनेपर वे पाण्डुपुत्र माता कुन्ती के साथ अपने चरणोंसे पृथ्वीको कंपित करते हुए वहांसे शीघ्र चले । प्रयाण करते करते वे प्रसिद्ध और पवित्र चम्पापुरीको आये। वहां कर्ण राजा राज्य करता था। वह राजाओं में सिंहके समान शोभता था । चम्पापुरीमें सुंदर कुम्भोंसे सुशो भित और चक्रोंके समूहसे भरे हुए कुम्हारके घर में वे पाण्डव ठहरे ॥१४७ - १४९ || उत्तम चक्रको घुमाने वाला, विनोद प्रेरित भीमने चक्रके ऊपर स्थास, कोश, कुसूल, इत्यादि कुंभकी परिणति देखनेकी इच्छा की। बडी गडबडीसे प्रगट कार्यका आरंभ करनेवाले भीमने मिट्टीके ढक्कन, बडे कुंभ, अन्न पकाने के स्थाली, झारी और छोटा घडा आदि पदार्थ फोड दिये। उनको फोडने से होनेवाला स्पष्ट शब्द, जिसका मन स्पष्ट है अर्थात् सावधान है ऐसी कुन्तीने सुना । तब कुपित होकर भीति से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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