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पाण्डवपुराणम्
आसां को भविता नाथः कथ्यतां वितथातिगः । स ब्रूते स्म निमित्तेन युधिष्ठिरं वरं वरम् ॥ ताथ तत्पतिमुनिद्रा निश्चित्य सुखतः स्थिताः । तद्वार्तामन्यथा श्रुत्वा समासन्दुःखिताः पुनः अथ तत्र पुरे श्रीमान्मित्राभो मित्रवर्धितः । प्रियमित्राभिधः स्वेभ्यः श्रेष्ठी श्रेष्ठगुणाग्रणीः ॥ दयिता सौमिनी तस्य तयोर्जाता सुता वरा । मृगनेत्रा पवित्रान्तः शुद्धा नयनसुन्दरी ॥१११ सुन्दरा सुन्दराकारा सेन्दिरा गुणमन्दिरा । पूर्वं युधिष्ठिरायासौ पित्रा दत्ता निमित्ततः ।। ११२ सापि तद्दहनं श्रुत्वा खिन्ना ताभिः समं स्थिता । धर्मध्यानरताः सर्वा बभ्रुवुर्ब्रततत्पराः ॥ ११३ राजा श्रेष्ठी सभार्यौ तौ पुरुषान्तरवेदिनौ । तास्तं दातुं समुद्युक्तौ क्षितौ दुःखभरैः स्थितौ ॥ सर्वपर्वसु ताः प्रीता उपवासं सुदुष्करम् । कुर्वन्त्योऽस्थुः स्थिरा भावैः स्वभावमधुरा गिरा ||
सुनी और वे पुनः दुःखित हो लगीं । उसी नगर में श्रीमान्,
पूछा अर्थात् इनका पति कौन होगा ? यह आप कहें। क्यों कि आप असत्यसे दूर रहते हैं अर्थात् आप निमित्तज्ञानसे जो होनेवाला है वही बताते हैं । तत्र निमित्तज्ञने निमित्तकेद्वारा श्रेष्ठ युधिष्ठिर इनका पति होगा ऐसा कहा ॥ १०७-१०८ ॥ वे जागृत दस कन्याएं युधिष्ठिर अपना पति होगा ऐसा निश्चय कर सुखसे रहने लगी । परंतु कुछ काल बीतने पर युधिष्ठिर अपने भाईयोंके साथ अग्निमें जलकर मर गये हैं, ऐसी दुर्वार्ता उन्होंने गयीं ॥१०९ ॥ वे दस कन्या जिनमंदिरमें धर्मध्यान करती हुई रहने सूर्य के समान कान्तिवाला, मित्रोंसे वृद्धिंगत हुआ प्रियमित्र नामक श्रेष्ठी रहता था । वह वैभवशाली और श्रेष्ठगुणोंसे लोगोंका अगुआ था । उसकी पत्नीका नाम सौमिनी था । उन दोनोंको नयनसुन्दरी नामक कन्या हुई वह हरिणके समान नेत्रवाली तथा पवित्र थी । अर्थात् उ मन शुद्ध था । वह सुन्दर थी उसके शरीरकी आकृति मनको लुभाती थी । लक्ष्मीके समान वह गुणोंका मंदिर थी । प्रियमित्र श्रेष्ठीने निमित्तसे सुनकर अपनी कन्या युधिष्ठिरको देनेका निश्चय किया था । युधिष्ठिरकी अग्निमें जल जानेकी वार्ता उस कन्याने सुनी, तब वह भी खिन्न होकर राजाकी दस कन्याओंके साथ रहने लगी। ये सभी कन्यायें धर्मध्यान में रत, व्रतोंमें, तत्पर रहने लगी ॥ ११०-११३ ॥ राजा, श्रेष्ठी और उन दोनोंकी पत्नियां ये चारों व्यक्ति अन्य पुरुषोंका स्वरूप जानते थे । अर्थात् अन्यपुरुषके साथ इन कन्याओं का विवाह करना योग्य नहीं हैं ऐसा वे समझते थे अतः युधिष्ठिरहीको इन कन्याओं को अर्पण करने लिये वे उद्युक्त हुए थे । परंतु इस भूतलपर वे अब अतिशय दुःखी होकर रहने लगे ॥ ११४ ॥ इधर ये ग्यारह कन्यायें प्रत्येक पर्वतथि के दिनमें सुदुष्कर उपवास करती हुई प्रीतिसे रहने लगी। अपने शुभ भावों में वे स्थिर थीं, और वाणी से वे स्वभावमधुर थीं। किसी समय वनके जिनमंदिरमें उन्होंने चर्तुदशीके दिन सोलह प्रहरोंका प्रोषधोपवास धारण कर निवास किया । वहांही धर्मध्यानमें तत्पर होकर उन्होंने व्युरसं धारण किया अर्थात् शरीरका ममत्व छोड दिया । उत्तम निश्चयसे युक्त होकर उन्होंने अहो -
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