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________________ २६६ पाण्डवपुराणम् शत्रौ मित्रे तथा बन्धौ समतारसमुद्बहन् । विवेचयनिजात्मानं वपुषः सुस्पृहातिगः ॥३३१ द्विधा संन्यासभावेन भावयन्परमं पदम् । बभूव भवभीतात्मा प्रपश्यन्भङ्गुरं जगत् ॥३३२ क्षान्त्वा क्षमाप्य सद्भातृन् नत्वा च जननीं तदा। बलिं दातुंखमात्मानं यावदुयुक्तमानसः॥ रुरुदुस्तावता तूर्ण भीमाद्या भयवेपिनः। अहो दैव त्वयारब्धं किमिदं दुःखकारणम् ॥३३४ अचिन्तितं दुराराध्यं दुःसाध्यं विधुराकुलम् । दैव त्वया समानीतमिदं कार्य सुदुस्सहम् ॥ गत्वा देशान्तरे स्थित्वा कियत्कालं तु पापिनः । धार्तराष्ट्रान्परावृत्य हनिष्यामो महाहवे ॥ वयं मनोरथारूढा गूढा इति कुदैवतः । अन्यावस्थां समापन्ना धिग्दैवं पौरुषापहम् ॥३३७ विललाप पुनः कुन्ती करुणाक्रान्तचेतसा । देवस्य दूषणं दुष्टं ददती दुर्दशाहता ॥३३८ हा पुत्र हा पवित्रात्मन् करुणारससागर । राज्याह राज्यभाग्भव्य नव्यभावविदां वर ॥ दोर्दण्डखण्डिताराते त्वां विना कुरुजाङ्गले । अचलापालने कोत्र भविता भाववेदकः॥ हत्वा शत्रून् विधातुंच राज्यं करतलस्थितम् । कौरवं त्वां विना पुत्र क्षमः कोऽन्योन जायते रुदन्ती हृदयं दोभ्यां ताडयंन्ती तडित्प्रभा। सा समर्छ महामोहान्मोहो हि चेतनां हरेत ।। लगे। जगतको क्षणिक देखते हुए वे संसारसे भयभीत हुए। उन्होंने अपने भाईयोंको क्षमा की और स्वयंभी उनसे क्षमा चाही। माताको उन्होंने वन्दन किया और अपना बलि. देनेके लिये जब वे उद्युक्तचित्त होगये तब भयसे कँपनेवाले भीमार्जुनादिक रोने लगे। हे दैव, तुमने यह दुःखका कारण क्यों किया ॥ ३२९-३३४ ॥ “ हे दैव तूने यह अत्यंत दुःसह कार्य हमारे सिरपर क्यों रखा है। यह कार्य संकंटव्यात, दुःसाध्य, दुराराध्य और अचिन्तित है। अर्थात् ऐसे विषम प्रसंगमें हम पडेंगे इस बातका हमें स्वप्नमेंभी खयाल नहीं था। हम देशान्तरमें जाकर कुछ कालतक वहां रहेंगे और फिर लौटकर दुष्ट कौरवोंको महायुद्ध में मारेंगे ऐसे मनोरथोंपर आरूढ हुए थे, परन्तु दुर्दैवने उन्हे ढंक दिया और हम भिन्न अवस्थाको प्राप्त हुए । पौरुषको नष्ट करनेवाले दैवको धिक्कार हो” ॥ ३३५-३३७ ॥ कुन्ती करुणासे व्याप्तचित्त होकर दैवको दूषण देती हुई विलाप करने लगी। दुःखदायक दशासे आहत होकर वह इस प्रकारसे विलाप करने लगी ॥ ३३८ ॥ “ हे दयारसके समुद्र, पवित्रात्मन्, तू राज्यके धारणमें पात्र है, राज्य धारण करनेवालोंका तू क्षेम करनेवाला है और नवीन लोकव्यवहारोंको जाननेवालोंमें तू श्रेष्ठ है । अपने बाहुदण्डोंसे शत्रुओंका तुमने खण्डन किया है। तेरे विना कुरुजाङ्गलदेशमें पृथ्वीका पालन करनेमें कौन समर्थ होगा ? तू पदाथोंके स्वरूपोंको जाननेवाला है"। हे पुत्र, शरूसमूहको मारकर अपने हाथमें कौरववंशका राज्य रखने में तेरे विना अन्य कौन इस भूतलपर समर्थ होगा?" इस प्रकार विलाप करनेवाली और अपने हृदयको दोनों बाहुओंसे पीटनेवाली, बिजलीकीसी कान्ति धारण करनेवाली वह कुन्तीमाता महामोहसे मूछित होगई। योग्यही है, कि मोह चेतनाको नष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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