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पाण्डवपुराणम् अट्टालिकाललाटेन शुम्भच्छोभाललामकम् । यद्वत्तदृद्धिसंपन ययात्र कौरवं कुलम् ॥६४ कदाचिमिशि संखिनो निशानाथोऽवतिष्ठते । यदुत्तुङ्गसुशङ्गाने ग्लानिहान्यै क्षणं क्षणी॥६५ यत्पताकापटेनाशु पवनोद्भतवेगिना । नाकिनः स्थितये तूर्णमाकारयति शुद्धितः ॥६६ सुस्तम्भैः स्तम्भकैर्नृणां जनाश्चर्जनाश्रयैः। विशाखाशिखरैः क्षिप्रं क्षिणोति खेड्गृहांश्च यत्।। देवेदं सदनं सम्यसिद्धिदं निर्मितं मया । पाण्डवानां निवासाय तेभ्यो दातव्यमञ्जसा ।। युधिष्ठिरः स्थिर स्थेयास्तत्र तिष्ठत्वहर्निशम् । प्राज्यं राज्यं प्रकुवाणः किरंस्तेजो दिशो दश।। वयं च स्वगृहे स्थित्वा स्थिरा राज्यार्थलाभतः। सुखं तिष्ठाम उभिद्राः समुद्रा इव निश्चला। इत्याकर्ण्य मुगाङ्गेयो गिरं जगावुदारधीः। यत्वयोक्तं तदेवेष्टं मम मान्यं मनोगतम् ॥७१ तव यन्मन्त्रणं मान्यं मह्यं तद्रोचते ध्रुवम् । यदेकत्र स्थितित्वं हि परं वैरस्य कारणम् ॥७२ य एकत्र स्थिता गेहे ते विरोधं प्रकुर्वते । विरोधहानयेऽत्यन्तं पृथग्गेहस्थितिर्वरा ॥७३ कुटुम्बकलहो यत्र तत्र स्वास्थ्यं कुतस्तनम् । यथा भरतचक्रीशश्रीबाहुबलिनोर्ननु ।।७४
गृह खंबेरूपी बाहुओंसे शत्रुओंके घरोंकी सम्पत्ति ग्रहण करनेके लिये मजबूत नीवपर खडा हुआ और शत्रुओंके लिए संकटद्वार-स्वरूप शोभता है ॥६०-६३|| यह गृह अट्टालिकारूपी ललाटसे चमकनेवाली मुख्य शोभा धारण करता है । अतः यह ऋद्धिसंपन्न, वैभवपूर्ण कौरवकुलके समान दीखता है ॥६४॥ कभी कभी इसके ऊंचे उत्तम शृङ्गपर ग्लानि दूर करनेके लिये क्षणी-पौर्णिमाका चंद्र खिन्न होकर कुछ क्षण विश्रान्ति लेता है ॥६५॥ हवासे जिनमें वेग उत्पन्न हुआ है ऐसी पताकाओंके वस्त्रद्वारा जो घर शीघ्रही निर्मलतासे देवोंको रहनेके लिये बुलाता है ॥६६॥ लोगोंको अपनी शोभा दिखाकर स्तब्ध करनेवाले खंबोंसे, लोगोंको आश्चर्यचकित करनेवाले और आश्रय देनेवाले महाद्वारोंके शिखरोंसे जो प्रासाद आकाशमें संचार करनेवाले ग्रहोंको शीघ्र विद्ध करता है । हे देव, मैंने उत्तम सिद्धि देनेवाला यह गृह पाण्डवोंको निवास करनेके लिये निर्माण किया है। आप उनको रहनेके लिये अवश्य दे ॥६७-६८॥ उत्कृष्ट राज्य करनेवाला और अपना तेज दशदिशाओंमें फैलानेवाला युधिष्ठिर वहां रात्रंदिवस स्थिर रहे । हमभी राज्यार्धके लाभसे अपने घरमें समुद्रके समान निश्चल और जागरूक होकर सुखसे स्थिर रहेंगे" ॥ ६९-७० ॥ इसप्रकार दुर्योधनका भाषण सुनकर उदार बुद्धिवाले भीष्माचार्यने कहा कि, “ जो तुमने कहा वह मुझे पसंद है। तुम्हारा मनोऽभिप्राय मुझे भी मान्य है। हे दुर्योधन, तुम्हारा जो मान्य विचार है वह मुझे निश्चयसे रुचता है । क्योंकि एकत्र रहना वैरका मुख्य कारण है । जो घरम एकत्र रहते हैं वे विरोध करते हैं इसलिये विरोध नष्ट होनेके लिये सर्वथा भिन्न गृहमें रहना अच्छा है, सुखदायक है। ॥ ७१-७३ ॥ जिस कुलमें कलह उत्पन्न होता है, उसमें स्वास्थ्य सुख कहांसे प्राप्त होगा? जैसे भरतचक्री और श्रीबाहुबलीके कुलमें कलह उत्पन्न होनेसे सुख और स्वास्थ्य नष्ट हुआ ।
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