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पाण्डवपुराणम् इत्युक्त्वाथ पृथुः पार्थः करे कोदण्डमादधत् । प्रचण्डेन सुकाण्डेन संयोज्य समरोद्यतः॥४० तथास्थं तं विलोक्याशु स्थिरधीश्च युधिष्ठिरः। अवारयद्वरैर्वाक्यैर्यतः सन्तो विरोधहाः ॥४१ अवदनकुलः कौल्यः कुलशालं समूलतः। निर्मुल्य कौरवाणां हि निःफलं च करोम्यहम् ॥ कौरवा वा पतङ्गा वा मयि चापि धनंजये । स्वयं निपत्य भूतित्वं यास्यन्ति यत्नतो विना ॥ सहदेवोऽवदद्धीरः केऽमी कौरवभूरुहाः। मया परशुना छिन्नाः क स्थास्यन्ति विनश्वराः॥ उत्क्षिप्य बाहुदण्डेन खण्डयित्वा च खण्डशः। कौरवांश्च दिगीशानांबलिं दास्यामि दिङ्मुखे।। पिशुनाशून्यतापनान्कौरवान्गर्विणोऽखिलान् । यावन्न विदधे तावत्स्वास्थ्यं मेज़ कुतस्तनम्।। दर्पिणोऽमी सुसाभाः स्थितेन च गरुत्मता। मयां ते किं करिष्यन्ति रुट्फणाफूत्कराः खलाः।। इति तौ वीतहोत्राभौ ज्वलन्तौ ज्वालयानिशम्। युधिष्ठिरसुमेधेन शमं नीतौ वचोजलैः॥४८ इति ते पूर्ववत्सर्वे शमं प्राप्ता युधिष्ठिरात्। शुद्धा युद्धमति हित्वा तस्थुः सुस्थिरमानसाः॥४९ भुञ्जन्तो भोगिनो भोग्यां भुवं भीतिविवर्जिताः। नयन्ति स्म नृपाः कंचित्समयं स्मेरचक्षुषः ॥ अथ दुर्योधनो योद्धा दुर्बुद्धिः शुद्धिवर्जितः । दधौ धर्मात्मजादीनां हतौ मतिं वृषातिगाम् ॥
वैसेही जबतक मैं क्रोध नहीं करता हूं तबतक ये कौरव मदसे उन्मत्त होकर मर्यादा छोड देगें" इस तरह बोलकर महत्त्वशाली अर्जुनने हाथमें धनुष्य धारण किया और उसको प्रचण्ड बाण जोडकर युद्ध करनेके लिये उद्युक्त हुआ । युद्ध करनेकी अर्जुनकी तयारी देखकर स्थिर बुद्धिवाले युधिष्ठिरने तत्काल योग्य भाषणोंसे उसका निवारण किया । योग्यही है, कि सज्जन विरोधको नष्ट करनेवाले होते हैं ।। ३९-४१ ॥ कुलीन नकुल इस प्रकार कहने लगा " कौरवोंका यह कुलरूपी शाल-वृक्ष मूलसे उखाड दूंगा और इसको फलहीन करूंगा । ये कौरव पतङ्गके समान हैं, और मैं आग्निके समान हूं। ये बिचारे बिना प्रयत्न स्वयं आकर पडेंगे और भस्म हो जायेंगे " । धैर्यवान सहदेव इसप्रकार बोला । "मेरे द्वारा कुल्हाडीसे तोडे हुये ये कौरवरूपी वृक्ष नष्ट होकर कहां रहेंगें? मैं कौरवोंको मेरे बाहुदण्डसे उठाकर और खण्डशः उनके टुकडे टुकडे करके इन्द्रादिक दश दिक्पालोंके दश दिशाओंके मुखमें बलि देऊंगा । जबतक दुष्ट,गर्वसे उद्धत ऐसे सर्व कौरवोंको मैं नष्ट नहीं करूंगा तबतक मुझे स्वस्थता-शान्ति कहांसे मिलेगी। ये कौरव सर्पके समान दर्पयुक्त हैं। क्रोधरूपी फणाके फूत्कार धारण करनेवाले और दुष्ट हैं। परंतु उनके लिये मैं गरुडकासा हूं। मेरे सामने वे क्या कर सकेंगे ? उनकी कुछ दाल न गलेगी। इसप्रकार ज्वालासे हमेशा जलनेवाले अग्निके समान वे नकुल
और सहदेव थे तोभी युधिष्ठिररूपी सुमेघकेद्वारा भाषणरूपी जलसे शान्त किये गये । इसप्रकार वे पूर्ववत् युधिष्ठिरसे शान्तता को प्राप्त हुए। शुद्ध और स्थिर मनवाले उन्होंने युद्धकी बुद्धि छोडदी ॥४२-४९॥ भोग्य पृथ्वीका पालन करनेवाले भीतिरहित प्रफुल्ल आंखवाले,उन भोगी पाण्डव राजाओंने कुछ काल व्यतीत किया ॥५०॥ तदनंतर दुर्बुद्धि, शुद्धिरहित अर्थात् निष्कपटतारहित, योद्धा
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