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एकादशं पर्व
२२१ वैकुण्ठाय सुकेतुस्तां दत्त्वा निवृतिमाप च। कृष्णोऽपि तां समालभ्य भेजे भोगं भवोद्भवम् ॥ मथुरायामवस्थाप्योग्रसेनं नरनायकम् । सौरीपुरं गताः सर्वे यादवाः कृष्णसंयुताः ॥६५ अथ राजगृहाधीशः श्रुत्वा कंसस्य पश्चताम् । जीवद्यशोमुखातूर्ण यादवेभ्यश्चुकोप सः॥६६ आहवाय सुतान्सोऽपि प्रेषयामास यादवैः। युद्धे ते भगतां नीता दैवपौरुषविक्रमैः॥६७ प्राहिणोत्स सुतं ज्येष्ठमपराजितनामकम् । षट्चत्वारिंशदधिक युद्धानां च शतत्रयम् ॥६८ विधाय यादवैः साधं सोऽपि भङ्गं गतः क्षणात् । पुनः संनय संप्रापद्यादवान्सोऽपि दुर्धरः॥ आगच्छन्तं पुनस्तं ते श्रुत्वा कालबलार्थिनः। सौरीपुरं च मधुरां व्याजहर्यादवाः क्षणात् ॥ आयान्तं तदनु क्रोधात्तं निवार्य च मायया। देवताः प्रेषयामासुर्यादवान्पश्चिमां दिशम् ॥७१ ततः कंसारिरात्मीयं विधातुं विधिवद्वयधात् । स्थानमष्टोपवासं चोदधेः पार्थे महामनाः॥ नैगमाख्योऽमरस्तत्र तदागत्य च माधवम् । अबीभणदिति स्पष्टं विशिष्टशुभनोदितः ॥७३ अश्वाकृतिधरं देवमारुह्य जलधौ तव । गच्छतः पत्तनप्राप्तिर्भविता भोगिमर्दन ॥७४ वाहारूढे च कंसारौ जलधौ सति धावति । द्विधाभावं गतोऽब्धिश्च यावन्नूतनवृद्धिभाक् ॥७५ सुनासीराज्ञया तत्र किनरेशः पुरीं व्यधात् । नेमीश्वरकृते चापि योजनद्वादशायताम् ॥७६
पाकर सांसारिक भोगका अनुभव लेने लगे। इसके अनंतर नरनायक उग्रसेन राजाको मथुरामें स्थापन कर सर्व यादव कृष्णके साथ शौरीपुरको चले गये ॥ ६०-६५ ॥ राजगृहाधीश जरासंधने कंसको यादवोंने मारा ऐसी वार्ता जीवद्यशाके मुखसे सुनी तब वह यादवोंके ऊपर तत्काल कुपित हुआ। उनके साथ लढनेके लिये जरासंधने अपने पुत्रोंको भेज दिया। यादवोंने दैव, पौरुष और पराक्रमके द्वारा उनका पराभव किया। तदनंतर उसने अपराजित नामक ज्येष्ठ पुत्रको यादवोंके ऊपर भेज दिया उसने उसके साथ ३४६ तीनसौ छियालीस युद्ध किये। परंतु वहभी तत्काल भंगको प्राप्त हुआ। युद्धकी तयारी कर वह फिर यादवोंके ऊपर चढकर आया। आते हुए उसे सुनकर योग्य काल और बलको चाहनेवाले यादवोंने तत्काल सौरीपुर और मथुराको अर्थात् वहांके प्रजाजनोंको अपने साथ चलनेको कहा ॥ ६६-७० ॥ क्रोधसे आनेवाले अपराजितको मायासे देवताओंने निवारण किया और यादवोंको पश्चिम दिशाको भेज दिया ॥ ७१ ॥ तदनंतर कंसारि महामना कृष्णने
अपने लिये स्थानप्राप्तिके अर्थ विधिके अनुसार समुद्रके समीप बैठकर अष्टोपवास किये। कृष्णके विशिष्टपुण्यसे प्रेरित होकर नैगम नामक देव श्रीकृष्णके पास आगया और इस प्रकार स्पष्ट बोलने लगा ॥ ७२-७३ ॥ कालियसर्पका मर्दन करनेवाले हे कृष्ण, अश्वकी आकृति धारण करनेवाले देवपर चढकर समुद्रमें जाते हुए तुझे नगरकी प्राप्ती होगी। इसके अनंतर अश्वका आकार धारण करनेवाला देव आगया, उसके ऊपर कंसका शत्रु कृष्ण बैठकर जाने लगा, तब समुद्र जितना बढ़ा हुआ था द्विधा हो गया। इंद्रकी आज्ञासे उस स्थानपर कुबेरने कृष्ण और नेमीश्वरके लिये नगरीकी
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