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________________ २०० पाण्डवपुराणम् महाकरा महावंशाः कपोलफलपालिनः । सुदन्ता भान्ति भूत्याढ्या नरा इव सुवारणाः ॥१०८ धनराशिस्तथा धान्यराशिर्धर्माच्च जायते । पुत्रवारः पवित्रात्मा सत्रिवर्गश्च सर्गतः ।। १०९ सुशिक्षिताः सुगमनाः स्वामिभक्तिपरायणाः । ससंस्कारा भवन्त्यत्र सुभृत्या इव वाजिनः॥ स्था रथाङ्गसंगेन चीत्कुर्वन्तो महार्थकाः । अर्थयन्ति समर्थ हि धर्मिणां धृतिधारिणाम् ॥१११ हारकुण्डलकेयूरमुद्रिकाकङ्कणादिकम् । वस्त्रताम्बूलकर्पूरं लभन्ते धर्मतो नराः ॥ ११२ मवाक्षाक्षपरिक्षिप्ता रक्षकै रक्षिताः खलु । अक्षयाः सत्क्षणाः क्षिप्रं लभ्यन्ते धर्मतो गृहाः ॥ सुकृतस्येति विज्ञाय फलं प्रविपुलं कलम् । कलयन्तु कलाभिज्ञाः सकलं तत्सुनिर्मलाः॥११४ अथ भीमो भ्रमन्भूमौ निर्भयः कौरवैः समम् । रेमे भुजङ्गसक्रीडाखेलनैः स्खलितात्माभिः॥ दर्शयांचक्रिरे भीमं भुजंगेन विषारान् । मुञ्चता कौरवाधीशा विश्वकापट्यपण्डिताः ॥११६ तस्य तद्गरलं तूर्णममृताय प्रकल्पितम् । तत्प्रभावान बभ्राम तदेहोऽदग्धवेदनः ॥११७ -----. ......... स्त्रियाँ धर्मसे जीवोंको प्राप्त होती हैं । जिनके हाथ पुष्ट हैं, जिनका महावंशमें जन्म हुआ है, कपोल फलको धारण करनेवाले,-अर्थात् विस्तृत गाल को धारण करनेवाले, सुंदर दांतवाले ऐश्वर्य परिपूर्ण मनुष्य के समान हाथी धर्मसे प्राप्त होते हैं । जिनकी शुंडा पुष्ट हैं, जिनके पृष्टास्थि बडे ऊंचे हैं, फलकके समान विस्तृत गण्डस्थलवाले हाथी शृंगारसे शोभते हैं । विपुल धनराशि तथा धान्यराशि, प्राणियोंको धर्मसे प्राप्त होती है । धर्मार्थ-काम-पुरुषार्थके पालक, पवित्र आचरणवाले अर्थात् सदाचारी पुत्रसमूह जीवोंको धर्मसे प्राप्त होते हैं । धर्मसे सुशिक्षित, उत्तम गतिवाले सदाचारके मार्ग में चलनेवाले स्वामिभक्तिमें तत्पर और अच्छे संस्कारवाले नौकरोंके तरह सुशिक्षित, सुंदर गतिवाले, अपने मालिकमें स्नेह रखनेवाले और सुसंस्कारवाले, घोडे मनुष्योंको धर्मसे प्राप्त होते हैं। चक्रोंके संगसे चीत्कार शब्द करनेवाले मौल्यवान रथ संतोष धारण करनेवाले धार्मिक लोगों को धनके साथ प्राप्त होते हैं । हार, कुण्डल, केयूर-बाजुबंद, अंगुठी, कडे आदिक अलंकार, वस्त्र तांबूल, कर्पूरं आदिक उत्तम पदार्थ धर्मसे मनुष्योंको प्राप्त होते हैं । खिडकियां रूपी इंद्रियोंसे युक्त, रक्षकों के द्वारा रक्षण किये गये, दीर्घकालतक रहनेवाले, उत्तम उत्सवोंसे पूर्ण अथवा उत्तम खनोंसे युक्त, ऐसे गृह धर्मसे मनुष्योंको प्राप्त होते हैं । इस प्रकार पुण्यका यह विपुल मधुर फल समझकर कलाओंके ज्ञाता निर्मल पुरुष वह सकल पुण्य प्राप्त करें ॥१०१-११४ ॥ इसके अनंतर भूतलपर निर्भय होकर भ्रमण करनेवाला भीम जिनका चित्त कुण्ठित हुआ है ऐसे कौरवों के साथ भुजंगक्रीडा करने लगा। संपूर्ण कपटों में चतुर, ऐसे कौरव राजाओंने विषांकुरोंको बाहर फेकने वाले सर्प के द्वारा दंश कराया । परंतु उसका तीव्र विषभी अमृत के समान हो गया। उसके प्रभावसे भीम के शरीरमें भ्रान्ति नहीं उत्पन्न हुई और उसका ज्ञानभी नष्ट नहीं हुआ ॥ ११५-११७ ॥ किसी समय भीष्माचार्य, द्रोणाचार्य, पाण्डु राजाके पुत्र और कौरव ये सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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