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नवमं पर्व दुर्योधनादिभूपानां पाण्डवानां विशेषतः। विरोधः कलहश्चैव भविता राज्यसिद्धये ॥२२६ कुरुक्षेत्रे मरिष्यन्ति धृतराष्ट्र सुतास्तव । आहवे विहितानेकवधे संनद्धयोष्टके ॥ २२७ अखण्डाखण्डलोल्लासाः पालयिष्यन्ति पाण्डवाः । विश्वम्भरां भयातीता हस्तिनागपुरे स्थिता।। यः पृष्टो मयधाधीशवधो विविधदुःखदः। तमाकर्णय संकृत्यावधानोऽदुरमानसम् ।। २२९ तत्र क्षेत्रे विकुण्ठेन वैकुण्ठेन हठात्मना । जरासंधमहीशस्य संगरः संजनिष्यति ॥ २३० अवेह्यहितकृत्तस्य मरणं तत ईशितुः । आकर्येति सचिन्तोऽभूद्धृतराष्ट्रः सराष्ट्रकः ॥२३१ ज्ञात्वा वृत्तमिदं सर्व नत्वा योगीन्द्रमुत्तमम् । प्रपेदे पुरमुल्लोलललनालोचनं नृपः ॥२३२
श्रुत्वासौ श्रुतिसंमतः श्रुतवरः श्रीमान् श्रियालङ्कृतः ऐश्वर्यापहतारिवारविकसत्पुण्यः सुगण्यो गुणैः । धुन्वन्श्रीधृतराष्ट्रनामनृपतिः कामं कलङ्क कृपासंक्रान्तो विरराज कौरवकुलं चिन्वंश्चिरं चारुधीः ॥ २३३ धर्मोऽयं कुरुते सुधर्ममयनं धर्मेण लक्ष्मीलताम्। लब्ध्वा धर्मकृते चिनोति चरितं सर्व शिवं धर्मतः ।
विरोध और कलह विशेषस्वरूप धारण करेगा अर्थात् उन दोनोंमें उत्तरोत्तर विरोध-कलह बढ जानेवाला है। हे धृतराष्ट्र , कुरुक्षेत्रमें योद्धा जिसमें सन्नद्ध होकर आये हैं, तथा अनेकोंका वध जिसमें होंगा ऐसे युद्धमें तेरे पुत्र मरेंगे ॥२२६-२२७॥ इन्द्रके तुल्य अखंड उह्वास-उत्साह धारण करनेवाले निर्भय पाण्डव हस्तिनापुरमें रहकर निर्भय पृथ्वीको पालेंगे ॥ २२८ ॥ हे धृतराष्ट्र , जरासंधके मरणविषयमें तुमने प्रश्न किया है उसका उत्तर मनको सावधान कर सुनो। जरासंधका मरण अनेक दुःखोंको देनेवाला होगा ॥ २२९॥ कुरुक्षेत्रमें चतुर और हठी कृष्णके साथ जरासंध राजाका युद्ध होगा। और त्रिखण्डके प्रभु जरासंधका मरण उस कृष्णराजासे होनेवाला है। यह बात तुम निश्चयसे समझो, सुव्रत मुनीन्द्र के मुखसे यह वार्ता सुनकर राष्ट्र के साथ धृतराष्ट्र राजा सचिन्त हो गया ॥ २३१ ॥ यह सब वृत्त जानकर और उत्तम योगीश्वर को वन्दनकर राजाने स्त्रियों के चंचल लोचनोंसे सुंदर दीखनेवाली नगरीमें-हस्तिनापुरमें प्रवेश किया ॥२३२ ।। आगमके कार्यों को प्रमाण माननेवाला, श्रुतज्ञानसे श्रेष्ठ, श्री-कान्ति-शोभासे युक्त, राज्यलक्ष्मीसे भूषित, ऐश्वर्यः के द्वारा शत्रुसमूहका विकसनेवाला पुण्य नष्ट करनेवाला, सब लोगोंको मान्य, और शुभ-बुद्धिवाला, दयासे व्याप्त अर्थात् अतिशय दयालु, और कौरववंश को वृद्धिंगत करनेवाला ऐसा धृतराष्ट्र भूपाल यथेष्ट पापों को धोता हुआ दीर्घ कालतक शोभने लगा ॥२३३ ॥ यह धर्मराज अर्थात् युधिष्ठिर मोक्षमार्गरूप धर्मका पालन करते हैं। धर्म के द्वारा लक्ष्मीरूपी लता को पाकर धर्म के लिये चारित्र को बढाते हैं । धर्म से सर्व प्रकार का कल्याण होता है । इस धर्मसेही धर्मको-युधिष्ठिरको
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