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नवमं पर्व
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निशम्येति यतेर्बाचं चलचेताश्वलात्मकः । चञ्चूर्यमाणोऽसातेन पाण्डुरासीद्भयातुरः ॥ १०० क्षणं क्षणिक मावीक्ष्य जीवितं जीवनोत्सुकम् । नृपः स्वसंपदं मेने क्षणिकां हादिनीमिव ।। ततश्चित्ते समालम्ब्य स्थैर्य स्थिरमना मुनिम् । नत्वा स्तुत्वा चचालासौ चालयन्नचलां चिरम् ।। पाण्डुस्तु पाण्डुराकारः समाट सदनं निजम् । पापभीतिः परां प्रीतिं कुर्वन्श्रेयसि संमतः ॥ धृतराष्ट्रादयस्तेन समाहूताः स्वमन्दिरे । ततः स मुनिवक्त्रोत्थं वृत्तान्तं समचीकथत् ॥ १०४ निशम्य ते महादुःखा रुरुदुर्हृदि ताडिताः । असिनेव हता हन्त विलापमुखराननाः ।। १०५ मुमूर्च्छर्मङ्गलातीता बाष्पप्लावितलोचनाः । कुन्त्यादयोऽखिला बाला मुक्ताश्चेतनया यथा ॥ शीतोपचारतो लब्धचेतनाश्चिन्तयाकुलाः । इतिकर्तव्यतामूढा गूढासातसमन्विताः ।। १०७ ततः पाण्डुरभाणीत्तान्समाश्वास्य वचोभरैः । श्रूयतामवधानेन भवद्भिर्वचनं मम ।। १०८ संसारे सरतां पुंसां जननं मरणं तथा । संबोभोति च किं दुःखं मरणे समुपस्थिते ।। १०९
इस प्रकारसे मुनिका भाषण सुनकर श्रीपाण्डुराजका मन चञ्चल हुआ । उसकी आत्मा में भी कंप उत्पन्न हुआ। वह दुःखसे अत्यंत पीडित होकर भयसे खिन्न हुआ । मनुष्यका जीवित जीवनके लिये हमेशा उत्सुक रहता है, परंतु वह स्थिर नहीं है। प्रत्युत क्षणिक है ऐसा राजाने निश्चय किया और अपनी सम्पत्तिको बिजलकेि समान क्षणिक जाना ॥ १०० - १०१ ॥ तदनंतर स्थिर चित्त राजाने चित्तमें स्थिरताका अवलम्ब कर मुनिको वंदन किया और उनकी स्तुति कर पृथ्वीको कम्पित करते हुए हस्तिनापुर के प्रति प्रयाण किया । शुभ्र शरीरका धारक पाण्डुराजा अपने घरको चला गया । पापसे डरनेवाला और मोक्षमें अथवा आत्महितमें अतिशय प्रेम करनेवाला वह राजा विद्वानोको मान्य था । १०२-१०३ ॥
[ पाण्डुराजाका उपदेश ] धृतराष्ट्रादिकोंको पाण्डुराजाने अपने घरमें बुलाया और मुनिके मुखसे निकली हुई अपनी मृत्युवार्ता उन्हें निवेदन की। वह वार्ता सुनकर उनको महादुःख हुआ । उनके हृदयपर उस वार्ताका तीव्र आघात हुआ । वे रोने लगे मानो किसीने उनके ऊपर तरवारका प्रहार किया हो । उनके मुखसे विलापके शब्द निकलने लगे। वे मूच्छित हो गये । उनकी आँखोंसे आँसू बहने लगे। उन्हें यह प्रसंग बहुत अमंगल मालूम हुआ । कुन्ती आदिक स्त्रियाँ मानो चेतनारहित होगयी अर्थात् वे गाढ मूच्छित हुई । जब शीतोपचार किया गया तब उनको चेतना फिर प्राप्त हो गई । परंतु उनको चिन्ताने पकड लिया । वे किंकर्तव्यमूढ हुईं । गाढ दुःख पीडित हुई । १०४-१०७ ॥ तदनंतर अनेक वचनोंसे पाण्डुराजाने सबका समाधान करते हुए कहा, आप लोग मेरा वचन सावधानतासे सुनो-संसारमें भ्रमण करनेवाले प्राणियोंको जन्म और मरण वारंवार प्राप्त होतेही हैं । इसलिये मरण प्राप्त होनेपर क्यों दुःखित होते हो ? ॥१०८ - १०९ ॥ इस षट्खण्ड पृथ्वीका भरतने उपभोग लिया । जीतने योग्य शत्रु जयसे उन्मत्त होकर उसने
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