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पाण्डवपुराणम् स्त्रीकथादिविभेदेन विकथा वाग्विचक्षणैः। उक्ता ततो निवृत्तिर्या सां वचौगुप्तिरिष्यते ॥८९ . चित्रांदिकर्मणा कायो विकृतिं याति न क्वचित् । कायगुप्तिस्तु सा ख्याता क्षिप्तदुःकर्मशत्रुभिः॥ सूर्योदय पथि क्षुण्णे वीक्षिते जन्तुमर्दिते। युगमानं गतिर्या तु सेर्यासमितिरुच्यते ॥९१ कर्कशादिविभेदेन दशधा वचनं स्मृतम् । तन्निवृत्तिः क्षितौ ख्याता भाषासमितिरुच्यते ॥९२ षट्चत्वारिंशता दोषैर्मुक्तो न्यादपरिग्रहः । विधीयते मुनीन्द्रर्या सैषणासमितिर्मता ॥९३ आदानं क्षेपणं यद्वोपधीनां संविधीयते । सन्माये वीक्ष्य सादाननिक्षेपसमितिर्मता ।।९४ श्लेष्ममूत्रमलादीनां क्षेपणं यद्विधीयते । निर्जन्तुके प्रदेशे च सा प्रतिष्ठापना भवेत् ॥९५ एवं विस्तरतो वाग्मी यतिधर्ममुवाच च । तथैवोपासकाचारं चरतां तं च नाकिताम् ॥९६ पुनर्योगी जगौ राजस्तस्मिन्धर्मे रतिं कुरु । यतः स्वर्गसुखावाप्तिनिर्वाणं क्रमतो भवेत् ।।९७ किंचायुस्तव सुस्वल्पं त्रयोदशदिनावधि । सावधानो विधानज्ञो विधेहि विधिववृषम् ॥९८ विशुद्धया धिया धत्ते धर्म यो विधिवद्धृवम् । धृतियुक्तः सुधीः प्रोक्तो विशुद्धः सोऽवधारितः॥
करना पहिली मनोगुप्ति है। स्त्रीकथा, राजकथा, आहारकया और चोरकथा ऐसे विकथाके चार भेद वचनचतुर विद्वानोंने कहे हैं। इन विकथाओंसे विरक्त होना वचनगुप्ति माना जाता है। चित्रादिक्रियासे शरीरका बिलकुल विकारको प्राप्त नहीं होना यह कायगुप्ति है ऐसा कर्मशत्रुको जीतनेवाले जिनेश्वरोंने कहा है ॥ ८८-९० ॥ सूर्योदय होनेपर मार्ग साफ दीखता है, लोग आनेजाने लगते हैं। तथा प्राणियोंके आनेजानेसे वह मार्ग मर्दित होता है और लोगोंकी रहदारीसे वह संचारयोग्य होता है और ऐसे मार्गमें सूक्ष्म चिऊंटी आदिक जन्तु नहीं रहते हैं। चार हाथ आगे देखकर सावधानतासे यतियोंका चलना ईर्यासमिति है ॥९१॥ कर्कशादिक भेदसे वचन दश प्रकारका है। उससे जो विरक्त होना वह भाषासमिति है ॥ ९२ ॥ मुनींद्र छियालीस दोषोंसे रहित आहार लेते हैं वह एषणासमिति है ॥ ९३ ॥ कमण्डलु, पुस्तक आदि जौनपर रखना अथवा उठा लेनेके समय जमीन और पुस्तकादि पदार्थ पिंछीसे स्वच्छ करना और देखभाल कर लेना यह आदाननिक्षेपण समिति है ॥ ९४ ॥ कफ, मल, मूत्र आदिक पदार्थ निर्जन्तुक जमीनपर छोड देना यह प्रतिष्ठापना समिति है ॥९५॥ इसप्रकार युक्तिसे भाषण करनेवाले सुव्रत मुनीशने विस्तारसे मुनिधर्मका कथन किया तथा श्रावकोंका धर्म आचरनेवालोंको स्वर्गप्राप्ति होती है, ऐसा कहकर श्रावकधर्मका भी विस्तारसे कथन किया और कहा हे राजन् इसप्रकारके द्विविध धर्ममें तू प्रेम कर । इन धर्मों से स्वर्गसुख मिलता है और क्रमसे निर्वाणकी प्राप्ति होती है ।।९६-९७ ॥ हे राजन् तेरी आयु अब तेरह दिनकी रही है; अतः तू सावधान हो। धर्माचारको जाननेवाला तू योग्य विधिसे धर्माचरण कर। यह निश्चित है कि निर्मल बुद्धिसे जो विधिपूर्वक दृढतासे धर्म धारण करता है, मनमें संतोष रखता है वह विद्वान् विशुद्धिको-निर्मल परिणामको धारण करता है ।। ९८-९९ ।।
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