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सप्तमं पर्व
१३७ धाच्या दृष्ट्यान्यदा दृष्टः स कुन्त्या कृतसंगमः। कोऽयं कस्मात्समायातः किमर्थमिति चिन्तितम्।। गते तस्मिन्समाचष्टे विशिष्टा स्पष्टलोचना । धात्री धृतिविनिर्मुक्ता कुन्ती कुन्ताग्रमानसा।।२१५ पुत्रि चित्रमिदं ब्रूहि चलञ्चतोविदारणम् । कोऽयं कुतः समयाति प्रतिघस्रं तव गृहे ।।२१६ .. इति पृष्टा महाकष्टादनिष्टवान्तधारिणी । आचख्यौ सा चलच्चक्षुश्वश्चला चलदेहिका ॥ २१७ समाकणेय कर्णाभ्यां कृति मे विकृताकृतिम् । कर्मणा कलितः कामी कुरुते किं न दुष्करम् ॥ कर्मणा कलिताः के के न नष्टाः क्लिष्टमानसाः । नानानीतिसमायुक्ता यथा प्राग्रावणादयः ।। अघटं घटयत्येव सुघटं घटनातिगम् । कर्मेदं घटयत्येवाचिन्तितं चतुरैर्जनैः ।। २२० धात्रि संध्यावसानेऽयमकस्मादागतः पुमान् । मत्सांनिध्यं विधेर्योगाद्विधिः किं न करोति हि ।। एजिता जयनिर्मुक्ता निर्गता खलकर्मणा । जितानेनाजितस्वान्ताहं सुभोगार्थदर्शिना ।। २२२
[धायको कुन्तीका उत्तर ] किसी समय कुन्तीके साथ समागम करते हुए पाण्डु राजाको आंखोंसे देखकर धायने यह पुरुष कौन है ? कहांसे आया है ? और किस प्रयोजनके लिये आया है ? इस बातोंका अपने मनमें विचार किया ॥ २१४ ॥ वह पुरुष (पाण्डुराजा ) वहांसे जानेपर गलितधैर्य तथा भालेके अग्रके समान तीक्ष्ण चित्तवाली सज्जन धायने अपनी आंखें बडी २ करके कुन्तीसे भाषण किया । हे पुत्री, कहो चंचल चित्तको विदारण करनेवाली यह अचम्भेकी बात क्या है ? यह पुरुष कौन है और प्रतिदिन तेरे महलमें क्यों आता है ? ॥२१५-२१६॥ धायका यह प्रश्न सुनकर अब अनिष्ट प्रसंग आया ऐसा मनमें विचार करनेवाली, जिसका देह कंप रहा है, जिसकी आखें चञ्चल हो रही हैं, ऐसी कुन्ती महाकष्टसे पीडित होकर इस प्रकार बोलने लगी ॥ २१७ ॥ " हे धाय, तू मेरी विकृत कार्यकी कथा कानोंसे सुन । कर्मके वश होकर कामीजीव कौनसा दुष्कार्य नहीं करता है ? कर्मके वश होकर क्लेशयुक्त मनवाले कौन कौन प्राणी नष्ट नहीं हुए ? रावणादिक महापुरुष अनेक नीतिओंसे युक्त थे परंतु वे भी लेश देनेवाले दुराचारसे नष्ट हुए हैं ॥ २१८-२१९ ॥ यह कर्म बडा विलक्षण है क्योंकि यह नहीं होनेवाला कार्य कराता है । और होनेवाला कार्य नहीं होने देता। चतुर लोगोंसे भी अचिंतित कार्य कर्म सिद्ध कर देता है।" "हे धाय, संध्याकालके बाद कर्मयोगसे यह पुरुष अकस्मात् मेरे पास आया । क्योंकि कर्म क्या नहीं करता है । दुष्ट कर्मके उदयसे युक्त मैं इसके आनेसे थरथर कांपने लगी। अच्छे भोगोंको दिखानेवाले इस पुरुषने मेरे न जीते गये चित्तको भी जीत लिया । अत एव मेरा पराजय होगया अर्थात् मैं उसके अधीन हो गयी। जिसकी शरीरकी कान्ति थोडी शुभ्र है, ऐसा यह पुरुष कुरुजांगल देशका स्वामी है अर्थात् व्यास राजाका पुत्र है। मेरे सौन्दर्यका वर्णन
१ स म संगता । पां.१८
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