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पाण्डवपुराणम् तावत्रपा कुलं तावत्तावनीतिः परा स्थितिः । तावत्पिता जनस्तावद्यावन्मारो न कुप्यति ।। अपाजवनिका भित्त्वा तो प्रमत्तौ मदातुरौ । चेष्टेते चेष्टया युक्तौ वियुक्तौ कालतोऽखिलात् ।। स तस्याः कण्ठमुद्ग्राहं गृहीत्वा चुम्बनोद्यतः । वदनाम्बुजमारोप्य यथा पर्व मधुव्रतः ।।२०५ इन्दिन्दिर इवोन्मत्तः पयाघ्राणनमात्रतः । तस्या आस्सं समाघ्राय लब्धपूर्व तुतोप सः।। २०६ तस्त्राकुचनं कुर्वन्प्रसारणपरायणः । भेजे भोग भुजाभ्यां स समालिङ्ग्य मुहर्मुहः ॥२०७ कुचकुम्भौ करौ तस्यास्तस्य नागाविवोन्नतौ । सेवते स्म यथा रक्तौ निधी लन्धसुखौ खलु ॥ स वक्षोजवने तस्या रेमे रामापरायगः । वियोगताक्ष्यसंभीतो यथाहिश्चन्दने वने ॥ २०९ वल्गनैश्चुम्बनैहोसर्विलासः क्रीडनैस्ततः । तौ भावं मेजतुर्भक्तौ कमपि प्रीतमानसौ ॥ २१० कियत्कालं ममालिङ्ग्यालिङ्गनैः स्पर्शनैः सुखम् । वदनाघाणनोद्युक्तौ तौ लभेतां सुजृम्भणौ ॥ एवं कामसुखेनासौ प्रीणयित्वाथ प्रेयसीम् । पिप्रिये प्रीणितः प्राज्ञः प्रियया को न तुष्यति।।२१२ इत्थं प्रच्छन्नदहोऽसावस्वस्थः प्रतिवासरम् । समागत्य तया साकं निःशकः स्थितिमातनोत।।
जबतक मदन कुपित नहीं होता है तबतक लज्जा, कुल और भीति मानी जाती है। तभीतक मर्यादाका पालन होता है, पिता और अन्य जनको लोक मान्य समझते हैं।' ॥१९२-२०३।। उस समय उन दोनोंका लज्जारूपी परदा हट गया और वे कामातुर होकर संभोगमें प्रवृत्त हुए, और दीर्घकालसे वियुक्त होनेसे कामचेष्टासे युक्त होकर नानाविध संभोगक्रीडा करने लगे ॥२०४ ।। जैसे भ्रमर कमलको चूाता है वैसे वह पाण्डुराजा उसका कण्ठ ऊपर करके अपना मुखकमल ऊपर रखकर उसके मुग्वका चुंबन लेने लगा। जैसे उन्मत्त भ्रमर कमलगंध सूंघकर आनंदित होता है वैसे कुन्तीके मुखको सूंघकर अर्थात् चूमकर पाण्डुराजाको अपूर्व आनन्द प्राप्त हुआ। वह उसका वस्त्र संकुचित करता था तथा फिर फैलाता था । तथा अपने दोनों बाहुओंसें उसका आलिंगन करके उसका वह बारबार भोगानुभवन करने लगा। जैसे निधिकुंभोंपर आसक्त बड़े नाग उनका सेवन कर सुखी होते हैं, वैसे पाण्डुराजाके दो उन्नत-पुष्ट हाथ कुन्तीके कुचकुम्भोंको आसक्तिसे स्पर्शकर सुखी हुए । जैसे गरुडसे डरनेवाला सर्प चन्दनवनमें रममाण होता है, वैसे वियोगरूपी गरुडसे डरनेवाला पाण्डुराजा कुन्तीके स्तनरूप बनमें रममाण हुआ । भाषण, चुम्बन, हास्य, विलास इत्यादि विस्तीर्ण क्रीडाओंसे आनंदित चित्त होकर अन्योन्यानुरक्त वे दम्पती अपूर्व भावको प्राप्त हुए । वे दोनों अन्योन्य मुखचुंबन करते थे । परस्परालिंगन करते थे, और स्पर्श करते थे। इस प्रकार उत्साहयुक्त वे सुखको प्राप्त हुए । वह चतुर पाण्डुराजा इस प्रकारके कामसुखसे अपनी प्रेयसीको सन्तुष्ट करके स्वयंभी सुखी-सन्तुष्ट हुआ । योग्यही है, कि प्रियाकी प्राप्ति होनेसे किसे संतोष नहीं होता? अर्थात् सभी आनंदित होते हैं। इस प्रकार गुप्तदेही वह पाण्डुराजा कुन्तीमें आसक्त होकर प्रतिदिन उसके महलमें आकर निःशंक होकर उसके साथ आनंदमे रहने लगा ॥२०४-२१३।।
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