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था । धृतराष्ट्रके गान्धारिसे उत्पन्न दुर्योधन आदिक सौ पुत्र थे । विदुरका विवाह देवक राजाकी पुत्री कुमुद्वतीके साथ हुआ था ।
धृतराष्ट्रने पाण्डुके लिये राजा अन्धकवृष्टिसे उनकी पुत्री कुन्तीकी याचना की । परन्तु पाण्डुके पाण्डु रोगसे पीडित होनेके कारण अन्धकवृष्टिने उसे स्वीकार नहीं किया। इधर पाण्डु राजा कुन्तीके रूपपर आसक्त था । एक समय उसे किसी वज्रमाली नामक विद्याधर राजासे कामरुपिणी मुद्रिका प्राप्त हुई थी। इसके द्वारा अभीष्ट रूप ग्रहण किया जा सकता था। इस मुद्रिकाके प्रभावसे पाण्डु अदृश्य होकर कुन्तीके महलमें जाने-आने लगा। एक वार धायने कुन्तीके साथ समागम करते उसे देख लिया। उसने इस सम्बन्धमें कुंतीसे पूछ-ताछ की । कुंतीने डरते डरते सब सच्ची घटना सुना दी। उधर पाण्डुके संयोगसे कुंतीके गर्भ रह गया था । गर्भवृद्धिको लक्ष्य कर कुंतीके माता पिता बहुत दुखी हुए। उन्हें धायके ऊपर बहुत क्रोध हुआ। परंतु धायने यथार्थ घटनाको सुनाकर कुंतीकी व अपनी निर्दोषता प्रगट कर दी । साथही उसने यह भी निवेदन कर दिया कि हे "स्वामिन् ! मैंने अबतक इस दोषको गुप्त रक्खा है, अब आगेके कर्तव्य कार्यका विचार करें।" यह सुनकर उन्होंने आगे भी इस दोषके गुप्त रखनेकी प्ररणा की।
___ इस दोषको गुप्त रखनेका यद्यपि पर्याप्त प्रयत्न किया गया था। फिरभी.वह पानीके ऊपर गिरे हुए तैलबिंदुके समान पृथ्वीपर शीघ्र फैल गया । समयानुसार कुन्तीने पुत्रको जन्म दिया। यह बात जनसमुदायमें कानोंकान प्रगट हो गई । अन्धकवृष्टिने इस समाचारको कानों कान फैलते देख. कर कुन्तीपुत्रका नाम ' कर्ण ' रक्खा। उसने उक्त पुत्रको वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत करके एक पेटीमें रक्खा उसे यमुनामें प्रवाहित कर दिया। पेटीमें 'कर्ण' इन नामाक्षरोंसे पुत्रपत्र भी रख दिया। वह पेटी बहती हुई चम्पापुरीके निकट पहुंची । वहांके राजा भानु [ सूर्य ] ने किसी निमित्तज्ञकेद्वारा पूर्वमें कहे गये वचनोंका स्मरण कर उस पेटीको मंगवा लिया । पेटीके खोलतेही उसमें सूर्यके समान तेजस्वी सुंदर बालक दिखायी दिया । उसे गोदमें लेकर राजाने अपनी प्रिय पत्नी
१ अथो कुमुदती नाम देवकक्षितिपात्मजा | विदुषा विदुरेणापि प्रेमतः पर्थणीयत । दे. प्र. पां. च. १-५६४.
२ अथादिष्टो विशां पत्या प्रातराकार्य कोरकः । पाण्डवे पाण्डुरोगित्वान्न दातास्मि निजां सुताम् ॥ कोरकेण नरेन्द्रोक्तं पुरुषाय न्यवेद्यत । तेनापि भीष्म-पाण्डुभ्यां हस्तिनापुरमीयुषा ।। दे. प्र. पां. च. १, ४६९-७० उत्तरपुराण ७०, १०४-१०९.
___३ उ. पु. ७०, १०३-१०९. दे. प्र. पां. च. १, ४८०-४९५.
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