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पाण्डव पुराणम्
रन्त्वात्र गच्छता छिद्रान्मुद्रिका पतिता करात् । विस्मृत्य गगने वेगाद्गतेन च मया स्मृता ।। तामिष्टां द्रष्टुकामेन परावृत्त्यागतं मया । अकाण्डे पाण्डुराख्यच्चानया का क्रियते क्रिया ।। खग आख्यत्तदाख्यानं मुद्रेयं कामरूपिणी । यथेष्टरूपदा रम्या निरूप्या रूपदायिनी ॥ १६४ मित्र या देया साहानि कानिचित्करे । स्थीयतां स्थायिनी पश्चात्सिद्धे कार्ये तु दास्यते ।। प्रार्थितो वज्रमाली तां परकार्यकरो वरः । अदात्तस्मै यतोऽप्राय मेघो दत्ते जलं महान् ॥ कौरवः करसंक्रान्तमुद्रिकः सूर्यपत्तनम्। सुरभूपकृतावासं कदाचिदगमश्वरा ॥ १६७ ततोऽदृश्यवपू रात्रौ प्रविश्यान्तःपुरान्तरे । कुन्तीनिकेतनं सोऽगाचद्रूपं हृदि संवहन् ।।१६८ तत्रासनसमारूढा गूढाङ्गी दृढसद्रतिः । कुन्ती कुन्तीव कामस्य किरत्कोमलकायिका ।। १६९ दोर्दण्डेन विदण्डथासौ मदनं मदनातुरा। धत्ते हृदि मदोन्मादमोदिनी मन्द्रमानसा ।। १७० यस्याः पीनपयोवाहभाराद्भारनितम्बतः । मध्येकटि कृशा चाभून्मध्यस्थः को न सीदति ॥ अनङ्गो युगपञ्जित्वा जगञ्जिष्णुर्भ्रमन्स्थिरम् । स्थितो यस्यास्स्तने नो चेत्तत्स्पर्शात्प्रगटः स किम् ।।
भूलकर मैं आकाशमें बेगसे जा रहा था । उस समय पुनः मुझे उसका स्मरण हुआ । वह अंगुठी मुझे अतिशय प्रिय है । अतः उसे ढूंढनेके लिए मैं यहां लौटकर आया हूं ।' पंडुराजाने बीचही में उसे पूछा, 'इस अंगुठीके द्वारा कोनसा कार्य सिद्ध किया जाता है ? ' ॥ १५६-१६३ ॥ विद्याधरने कहा, कि देखो यह सुंदर अंगुठी सौंदर्यको बढानेवाली तथा इच्छितरूप देनेवाली है । तब पाण्डुराजाने वज्रमालीस प्रार्थना की, कि ' मित्र, यह अंगुठी यदि इच्छितरूप देनेवाली है तो कुछ दिनतक मुझे दे दो। मैं इसे सम्हालकर रक्खूंगा और कार्यसिद्ध होनेपर आपको वापिस दूंगा । परहित करने में श्रेष्ठ विद्याधरने वह उसे दे दी । योग्य ही है, कि श्रेष्ठ मेघकी प्रार्थना करने पर वह जल देताही है ।। १६४-१६६॥
[ पाण्डुराजाका कुन्तीके महलमें प्रवेश ] किसी समय हाथमें अंगुठी धारण कर पाण्डुराजा शूर राजाका निवासस्थानरूप शौरीपुरको वरासे गये । तदनंतर कुंतीके रूपको हृदय में धारण करते हुए अदृश्य शरीर से अन्तःपुरमें उसके महलमें प्रवेश किया ॥ १६७ ॥ हां आसनपर बैठी थी । उसने अपने अंगपर वस्त्र धारण किया था। वह दृढ़ और सुंदर रतिके समान थी । उसका तेजस्वी शरीर कोमल और चारों ओर किरण फैलानेवाला था । वह कुन्ती मानो कामके शरके समान थी ॥१६८॥ मदके उन्मादसे हर्षित, गंभीर चित्रावाली, मदनातुर कुन्ती अपने दण्डके समान बाहुओं से मदनको दण्डित करके हृदयमें धारण करती थी ॥ १६९ ॥ कुन्तीके पुष्ट स्तनके भारसे तथा नितंत्रके भारसे शरीर के मध्य में रहनेवाली उसकी कटी कुश हुई । योग्यही है कि जो कोई किसी कार्य के लिये मध्यस्थ होता है उसे क्या कष्ट नहीं सहन करने पडते हैं ? अर्थात् वह कष्ट सहताही है ॥ १७०-१७१ || हम समझते हैं कि हमेशा भ्रमण कर युगपत् जगत्को
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